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________________ 212 नैषधीयचरिते (विशे० ) करोतीति ( नामधा० ) कुडमल+पिच्+ल्युट ( मावे ) / पूर्वार्ध-वाक्य 'जगदतुः क्रिया का कर्म बना हुआ है। अनुवाद-ताप के कारण संकुचित होते-नीचे बैठते हुए ( दमयन्ती) की छाती पर रखे दो कमल पीनस्तन वाली ( दमयन्ती ) को ( मानों ) कह रहे थे--"तुम्हारे दोनों स्तन इसी तरह प्रियतम के हाथों द्वारा ग्रहण प्राप्त करेंगे। वे क्यों मचल रहे हैं ?" // 30 // टिप्पणी-यहाँ ताप से कमलों के कुड्मलन और स्तनों के प्रियकर ग्रहण प्राप्ति में सारश्य स्पष्ट नहीं हो पाया है / वास्तव में कवि का अभिप्राय यह है कि जिस तरह 'हम ताप द्वारा सिकुड़ कर नीचे बैठ रहे हैं, वैसे ही तुम्हारे स्तन भी प्रियतम द्वारा हाथों से पकड़े और दबाये जाने पर सिकुड़कर नीचे बैठ जाएंगे। नीरजों में बोलने की कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है। 'मेव' 'मवा' तथा 'स्तन' 'स्तनी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। त्वदितरो न हृदापि मया धृतः पतिरितीव नलं हृदयेशयम् / स्मरहविर्भुजि बोधयति स्म सा विरहपाण्डतया निजशुद्धताम् // 31 // अन्धयः-सा हृदयेशयम् नलम् "त्वदितरः मया हृदा अपि न धृतः" इति इत्र निजशुद्धताम् विरह-पाण्डुतया स्मर-हविर्भुजि बोधयति स्म / टीका-सा दमयन्ती हृदयेशयम् हृदयस्थितम् नलम्-'त्वत्त इतर अन्यः मिन्नः पतिरिस्यर्थः (पं० तत्पु०) मया हृदा मनसा अपि न धृतः चिन्तितः इत्यर्थः इति इव निजाम् स्वकीयाम् शुद्धताम् पवित्रताम् निदोषताम् पातिव्रत्यमिति यावत् ( कर्मधा० ) विरहेण वियोगेन या पाण्डुता पीतवता ( त० तत्पु० ) तया स्मरः कामः एव हविर्भुक् वह्निः ( कर्मधा० ) तस्मिन् ( मग्नान् ) बोधयति स्म शापयति स्म / दमयन्तीविरहेण पाण्डुरासीत् , वह्निरपि पाण्डुर्भवतीति / निजपाण्डुतथा कामाग्नौ स्थिता सा नलं प्रति स्वपातिव्रत्यम् आचष्टे स्मेति भावः // 31 // व्याकरण-हृदयेशयम्-इसके लिये पोछे श्लोक 28 देखिये / हविभुजि हविः भुङ्क्ते इति हबिस् +/भुन्+विप् ( कर्तरि ) सप्त० / बोधयति स्म Vबुध् + णिच+लट् , बुद्धयर्थ होने से अन्त में द्विकर्मता, एक कर्म नल और दूसरा 'खदिन धृतः' यह संशात्मक उपवाक्य / अनुवाद-वह ( दमयन्ती ) हृदय में स्थित नल को-"तुम से भिन्न दूसरा मैंने भन से भी ( पति ) नहीं सोचा" इस तरह ( कहती हुई ) विरह जनित पाण्ड्ड वर्ण के कारण कामाग्नि में अपनी शुद्धता बता रही थी / / 31 / / टिप्पणी-अपनी शुद्धता प्रमाणित करने हेतु शास्त्रों में दिव्य परीक्षायें बनाई गई हैं जिनमें एक अग्नि-परीक्षा भी है। सीता ने राम के आगे अपनी अग्नि परीक्षा दी थी। विरह के कारण पीली पड़ी अपनी देह प्रमा से ऐसा लगता था मानों दमयन्ती कामाग्नि-मग्न होकर दिव्य परीक्षा दे रही हो। कवि की इस कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जिसका स्मर पर हविर्भुक्त्व के आरोप से बने रूपक के साथ अङ्गाङ्गिमाव संकर है / 'हृदापि' में अपि शब्द के बल से अन्य बातों से तो क्या' इस अर्थान्तर के या पड़ने से अर्थापत्ति मी है। 'विरह-पाण्दुतया में यदि आर्थ अपहब माना जाय अर्थात
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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