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________________ 21. नैषधीयचरिते टिप्पणी-काम दमयन्ती को बहुत सता रहा था। अतः ताप-शमन हेतु उसने शरीर पर चन्दन-लेप कर रखा था, लेकिन ज्वर की ऊष्मा से वह सूखकर सारे शरीर में पूर्ण रूप हो भस्मजैसा लग रहा था। ठंडक के लिए जो लंबे 2 मृणाल-दण्ड उसने धारण कर रखे थे, वे सॉप-जैसे लग रहे थे। बस क्या था, वह महादेव बन बैठी और काम को डराने लगो कि खबरदार घर आगे बढ़ा तो। इसे कवि की कल्पना मानकर मल्लिनाथ ने उत्प्रेक्षा मानी है, जो वाचकपद के अमाव में प्रतीयमान ही है। लेकिन हमारे विचार से दमयन्ती द्वारा महादेव की विभीषिका अपनाने में निदर्शना बनेगी, क्योंकि दूसरे का धर्म दसरा अपनावे-यह असम्भव है, इसलिए 'विभीषिकामिव विभीषिकाम्' इस तरह यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्बमाव है। 'विषधराम' में उपमा स्पष्ट है ही। 'विष' 'विसा' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विनिहितं परितापिनि चन्दनं हृदि तया धृतबुबुदमाबमौ। उपनमन् सुहृदं हृदयेशयं विधुरिवाङ्कगतोडुपरिग्रहः // 28 // अन्वयः-परितापिनि हृदि तया विनिहितम् धृत-बुबुदम् चन्दनम् अङ्कगतोडुपरिग्रहः हृदयेशपम् सुहृदम् उपनमन् विधुः इव आवमौ / टोका-परितापः ज्वरोऽस्यास्तीति तथोक्त हृदि हृदये तया दमयन्त्या विनिहितम् स्थापितम् धृताः मृताः बुबुदाः डिम्बिकाः येन तथाभूतम् (ब० वी० ) चन्दनं मलयजम् अहंमध्यं गतः प्राप्तः समीपमागत इत्यर्थः ( द्वि० तत्पु०) उखवः नक्षत्राणि एव परिग्रहः परिकरः परिचरवर्ग इति यावत् ( उभयत्र कर्मधा०) यस्य तथाभूतः ( ब० वो० ) हृदये मनसि शय इति हृदयेशयः तम् ( अलुक् समास ) हृदये वर्तमानम् सुहृदम् कामम् उपनमन् उपसर्पन् विधुः चन्द्र इव श्राबभौ शुशुमे / हृदि धृतं चन्दनं ज्वरोष्मकारणात् बुद्बुदायमानं सत् नक्षत्रगणपरिगत: चन्द्र इव प्रतीयते स्मेति मावः / / 28 / / व्याकरण-हृदयेशयः शेते इति /शी+अच् ( अधिकरणे ) शयः ('अधिकरणे शेते' 3 / 2 / 15) हृदयेशयः सप्तमी का विकल्प से अलोप ( 'शयवास० 6 / 3.18 ) / लोपपक्ष में हृदयशयः। अनुवाद-(विरह से ) संतप्त वक्षः-स्थल पर उस ( दमयन्ती ) के द्वारा लगाया हुआ, बुलबुलों वाला चन्दन ऐसा शोभा दे रहा था कि जैसे भृत्यवर्ग के रूप में नक्षत्र गण को पास रखे चन्द्रमा हृदय में स्थित ( अपने ) मित्र ( कामदेव ) को मिलने जा रहा हो / / 28 / / टिप्पणी-ताप के आधिक्य के कारण ठंडक के लिए छाती पर प्रयुक्त चन्दन लेप के इर्दगिर्द बुलबुले आ जाते थे, जिस पर कवि ने यह कल्पना की कि श्वेत-सादृश्य से लिया हुआ गाढ़ा चन्दन मानो चन्द्रमा हो और परिजन सहित चन्द्रमा दमयन्ती के हृदय में बैठे अपने मित्र काम से मिलने जा रहा हो। यह उत्प्रेक्षा है। 'हृद' 'हृद' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् / श्रयितुमर्धपथे कृतमन्तरा श्वसितनिर्मितममरमुज्झितम् // 29 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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