SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधीयचरिते __ अनुवाद-( गेहूँ-जौ आदि धान्य के ) कीस की नोक यदि पैर में घुस जाती है, तो वह कितनी वेदना नहीं करती ? अवनिभृत् (राजा नल-पहाड़-) सुकुमार देहवाली (दमयन्ती ) के हृदयमें ( घुसकर ) बैठा हुआ फिर क्यों न वेदना करे ? / / 11 / / / टिप्पणी- यहाँ दो विभिन्न अवनिभृतों-राजा और पर्वत–में कवि ने अमेदाध्यवसाय कर रखा है अतः मेदे अमेदातिशयोक्ति है / मल्लिनाय के शब्दों में अत्र पादे सूक्ष्मकण्टकप्रवेशे दुःसहा व्यथा, किमुत मृदङ्गया हृदि महत्प्रवेशेन इति कैमुत्यन्यायेनार्थान्तरापत्तेरापत्तिरलङ्कारः', किन्तु यह अर्थान्तर यहाँ अर्थात् आपन्न नहीं हो रहा है, प्रत्युत शब्द-वाच्य है, अतः अर्थापत्ति का विषय नहीं। हो काकु वक्रोक्ति अवश्य बन सकती है। शब्दालंकार छेक और वृत्त्यनुपास है। शक पद स्वयं ही ऊपर दिए हुए कोष के अनुसार 'तीक्ष्णाग्र' का वाचक है, तो 'अन' के लिए फिर शिखा पद देना अधिकपदत्व दोष बना रहा है। मनसि सन्तमिव प्रियमीक्षितुं नयनयोः स्पृहयान्तरुपेतयोः / ग्रहणशकिरभूदिदमीययोरपि न सम्मुखवास्तुनि वस्तुनि // 12 // अन्वयः-मनसि सन्तम् प्रियम् ईक्षितुम् स्पृहया अन्तः उपेतयोः इव इदमीययोः नयनयोः सम्मुख-वास्तुनि अपि वस्तुनि ग्रहण-शक्तिः न अभूत् / ___टोका-मनसि हृदये सन्तम् विद्यमानम् प्रियम् प्रेयसं नलम् ईक्षितुम् विलोकयितुम् स्पृहया अभिलाषेण उत्कण्ठयेति यावत् इव इदमीययोः अस्या दमयन्त्या सम्बन्धिनोः नयनयोः नेत्रयोः सम्मुखं पुरोवर्ति वास्तु स्थानम् ( 'वेश्मभूस्तुिरस्त्रियाम्' इत्यमरः) ( कमधा० ) यस्य तथाभूते (ब० वी० ) अपि वस्तुनि पदार्थ किं पुनः दूरस्थे ग्रहणस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षीकरणस्येति यावत् शक्तिः सामयम् न अभूत् न जाता। प्रियविषयकचिन्तामग्नत्वात् दमयन्ती सम्मुखस्थमपि वस्तु न दृष्टवतीति भावः / / 12 / / व्याकरण-सन्तम् अस्+शत+द्वि० / स्पृहा स्पृह+अच् ( भावे )+टाप् / इदमीययोः इदम् +छ, छ को ईय। अनुवाद-हृदय में विद्यमान प्रिय ( नल ) को देखने हेतु इच्छा-पूर्वक भीतर गई हुई जैसी इस ( दमयन्ती ) की आँखें सामने पड़ी हुई भी वस्तु को नहीं देख सक रही थीं / / 12 / / टिप्पणी-चिन्ता के कारण दमयन्ती की आँखे भीतर धंस गई थीं और मन द्वारा सतत प्रिय का ध्यान करते रहने से वह सामने पड़ो वस्तु को भी नहीं देख पा रही थीं क्योंकि मनः संयोग के बिना बाझ इन्द्रियों काम नहीं करती। इस पर कवि ने यह कल्पना की है कि मानों उसकी आँखें हृदय-स्थित प्रिय को देखने हेतु मीतर चली गई हों, वे बाहर देखें, तो कैसे देखें / इस तरह उत्प्रेक्षा है। 'वास्तुनि' 'वस्तुनि' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुस है। चिन्ता नामक सञ्चारी भाव चल ही रहा है। हृदि दमस्वसुरश्रुझरप्लुते प्रतिफलद्विरहात्तमुखानतेः / हृदयमाजमराजत चुम्बितुं नलमुपेत्य किलागमितं मुखम् // 13 // 1. गमि तन्मुखम् /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy