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________________ चतुर्थसर्गः टिप्पखो-कुम्हार घड़ा बनाता है, धूप में सुखाकर उसे मख्न करता है और बाद को आग में पका कर बिलकुल पक्का बना देता है। यह अप्रस्तुत योजना कविने रूपक बांधकर दमयन्ती के कुचों पर प्रयुक्त की है। कामदेव पर कुम्मकारत्त्र, कुचों पर कुम्भव, यौवन पर सूर्यद्यतित्व और अनलसंयोग ( नल-वियोग) के संताप पर मनलसंयोग ( अग्नि-सम्र्पक के तापत्य ) का आरोप होने से साङ्ग रूपक है, जो अनलसंगतितापम् में श्लिष्ट है। किन्तु 'नल का संयोग न होने वाले अर्थ में निषेध की प्रधानता है, अतः उसे प्रसज्यप्रतिषेध के रूप में स्वतन्त्र न रखकर समास में रख देने से उसकी प्रधानता अथवा विधेयता नष्ट हो जाने के कारण विधेयाविमर्श दोष आ गया है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। मस्त यद्विरहोष्मणि मज्जितं मनसिजेन तदूरुयुगं तदा। स्पृशति तत्कदनं कदलीतरुयदि मरुज्वलदूषरदूषितः // 8 // अन्वयः-तदा यत् तदूरु-युगम् मनसिजेन विरहोष्मणि मज्जितम् ( सत् ) अधृत, कदली तरुः यदि मरु"दूषितः ( स्यात् ) तत्कदनं स्पृशति / टीका-तदा तस्मिन् समये यत् तस्याः दमयन्त्याः ऊर्वोः सक्थ्नोः युगम् द्वयम् / ( उमयत्र 10 तत्पु० ) मनसिजेन कामेन विरहस्य प्रिय-वियोगस्य ऊष्मणि दाहे विरहाधिजनिततापे इति यावत् ( 10 तत्पु०) मज्जितं ब्रडितम् निवेशितमित्यर्थः सत् भरत स्थितम् , कदल्या रम्मायाः तरः वृक्षो यदि मरी मरुभूमौ ज्वलन् तप्यमानम् ( स० तत्पु०) यत् ऊषरम् ऊषवत् क्षेत्रम् (कर्मधा० ) तेन दूषितः दोषमवापितः स्यात् तहिं तस्य दमयन्त्या ऊरुयुगस्य कदनं वेदनावेदना-नुभवमिति यावत् स्पृशति प्राप्स्यति / कामज्वरतप्तस्य दमयन्यूरुद्वयस्य साम्यं मरुभूमौ वक ___ण्याकरण-मनसिजेन मनसि जायते इति मनस् +/जन् +डः, विकल्प से सप्तमी का मलोप लोप-अवस्था में मनोज / मज्जितम/मस्ज् +णिच् +क्तः ( कर्मणि)। अत धुङ् (अवस्थाने )+लङ्। कदनम् कद्+ल्युट (भावे ) / उषाम् ऊषोऽस्यास्तीति ऊष+र: (मतुबथें ) / स्पृशति भविष्यदर्थ में लट। अनुवाद-उस समय उस ( दमयन्ती) की काम द्वारा बिरह की आग में डुबोई हुई जो दो जाँघे ( किसी तरह ) टिकी रहीं, उनको वेदना कदली-वृक्ष (ही) अनुमव करेगा, यदि वह मरुस्थल में जलती हुई असर ( ऊखड़) भूमि से झुलस गया हो // 8 // टिप्पणी-कामज्वर से दमयन्ती की जाँचे ऐसी तपी हुई थीं जैसे जलते हुए मरुस्थल की कदली; यहाँ ऐसा अप्रस्तुत-विधान होना चाहिए था, किन्तु कविने उलट दिया है अर्थात् कदली को जांघों के समान बता दिया है। इसलिए यह प्रतीपालंकार हुआ। प्रतीप उसे कहते हैं जहाँ उपमेय उपमान बन जाता है और उपमान उपमेय / ऐसा मल्लिनाथ ने कहा है किन्तु हमारे विचार से कदनं स्पृशति द्वारा कदली में जो दमयन्ती की जोषों का कदन अपनाया जाना बताया गया है, वह असम्भव है, क्योंकि दूसरे का धर्म दूसरा कैसे अपनाएगा अतः यहाँ कदनमिव कदनम् 'यो
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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