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________________ चतुर्थसगः (मोषण, असघ) पर विषमत्व ( संततत्व ) का आरोप होनेसे रूपकालंकार है, वह मी साग और रस, मज्जन तथा विषम शब्दों में श्लिष्ट है। उसके साथ विषमालंकार का संकर है। किसी मळे काम के लिए कोई व्यक्ति जावे और फल उसका बुरा मिले, तो यह भी विषमालंकार का एक मेद है। 'गये थे चौने छम्बे बनने, दुब्बे होकर आए' वालो बात समझे। 'तनु' 'तनु' में यमक 'रसो' 'रस' और पदि' 'पद्य' में छेक और अन्यत्र वृन्त्यनुप्रास शब्दालंकार हैं। ध्रुवमधीतवतीयमधीरतां दयितदूतपतद्गतिवेगतः। स्थितिविरोधकरी द्वयणुकोदरी तदुदितः स हि यो यदनन्तरः // 3 // अन्धयः-द्वयणुकोदरी इयम् स्थिति-विरोधकरीम् अधीरताम् दयित...वेगत; अधोतवतो ध्रुवम् ; हि य: यदनन्तरः स तदुदितः ( मवति ) / रोका-द्वयणकम् परमाणुद्वयनिर्मितं प्रथमकार्य तद्वत् अर्थात् सूक्ष्मम् उदरं मध्यम् ( उपमानतत्पु० ) यस्यास्तथाभूता (ब० वी० ) कृशोदरी इयं दमयन्ती स्थितेः ( स्युचितायाः) मर्यादाया विरोधकरीम् ( 10 तत्पु० ) विरोधं करोत्येवंशीलाम् ( उपपद तत्पु० ) विरोधिनीमित्यर्थः अधीरता धैर्यामावं चान्चल्यमिति यावत् दयितस्य प्रियतमस्य नलस्य यो दूतः सन्देशवाहकः ( प० तत्पु० ) पतन् पक्षी हंस इत्यर्थः ( कर्मधा० ) ( 'पतत् पत्ररथाण्डजः' इत्यमरः ) तस्य गतस्य गमनस्य वेगात रयात् ( उभयत्र ष० तत्पु० ) अधीतवती पठितवती प्राप्तवतीत्यर्थः ध्रुवम् इत्युत्प्रेक्षायाम् / दमयन्त्या हंसगतिवेगात् चान्चल्यं गृहीतमिति भावः, हि यतः यः पदार्थः यस्मात् अनन्तरः (पं० तत्पु० ) भनन्तरः अनन्तरं यस्मिन् तथाभूतः (ब० बी०) अव्यवहितः अभ्यहितपरवर्तीत्यर्थः स तस्मात् अदितः उत्पन्नो मवतीति शेषः / हंसतो नलकथामाकर्ण्य तद्गमनसमनन्तरमेव दमयन्त्या मनसि चान्चल्यममदिति भावः / / 3 // व्याकरण-विरोधकरीम् विरोध+ +ट+डीप् / गतम्/गम् +क्त (भावे ) / वेगतः 'आख्यातोपयोगे (1 / 4 / 29 ) से पन्चमी, और पन्चम्यर्थ में तसिल / उदितः उत् + +क्तः ( कर्तरि ) / अन्तिम पाद में सामान्य बात का प्रतिपादन होने से 'सामान्ये नपुंसकम्' इस नियमानुसार 'स, 'यो' में नपुंसकलिग चाहिए था। अनुवाद-द्वयणुक-जैसे उदर वाली यह ( दमयन्ती ) प्रियतम के दूत पक्षी हंसकी गति के वेग से मानो ( स्त्रियोचित ) मर्यादा के विरुद्ध चञ्चलता सीख बैठी; कारण यह कि जो जिसके अव्यवहित परवती होता है, वह उसीसे उत्पन्न ( समझा जाता) है / / 3 / / टिप्पणी-हंस के चल पड़ते हो दमयन्ती हृदय में अधोर-चञ्चल हो चली। इस पर कविकल्पना यह है कि मानो हंस की गति-चन्चलता ही उसे चञ्चलता सिखा गई हो। इस बात के. समर्थन हेतु कवि न्याय सिद्धान्त का यह नियम दे रहा है-'यदनन्तरमेव यद्श्य ते, वत् तस्य कायम् / कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक 'ध्रुवम्' शब्द है। उसके साथ अर्थान्तरन्यास का अङ्गाङ्गिमाव संकर है / घणुकोदरी में लुप्तोपमा है। शब्दालंकारों में 'मधी' 'मधी' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनु पास है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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