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________________ 188 नैषधीयचरिते नस्ता और भुतिपयोपगतम् शिछष्ट शब्द है, उपमेय यश और उपमान कुसुम को सुरमित्व और उपमेय न का उपमान-भूत इषुके साथ सुमनस्ता और श्रुतिपथोपगतत्व-रूप एकधर्मामिसम्बन्ध होने से दीपक का शिलष्ट रूपक से संकर है। 'गुण' 'गुण' तथा 'मिषु' 'माशु' (षशयोरमेदात् ) में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इस सर्ग में 'द्रुतविलम्बित' छन्द है, जिसका लक्षण यह है-द्रतविलम्बितमाह नमो मरौ' अर्थात् इसके प्रत्येक पाद में नगप, भगण, मगण और रगण बारह वर्ष होते हैं। यदतनुज्वरमाक्तनुते स्म सा प्रियकथासरसीरसमजनम् / सपदि तस्य चिरान्तरतापिनी परिणतिर्विषमा समपद्यत // 2 // अन्वयः यत् अतनुज्वरमाक् सा प्रिय...जनम् तनुते स्म, तस्य सपदि चिरान्तरतापिनो परिपतिः विषमा समपचत। टीका-यत् यतः न तनुः शरीरं यस्य तथाभतः ( ना ब० वी० ) अनङ्गः तस्य ज्वरः तापः (प० तत्पु०) कामजनितसंताप इत्यर्थः तं मजतीति तथोक्ता / उपपद तत्प० ) सा दमयन्ती प्रियस्य प्रपयिनो नलस्य कथा वृन्तान्तः (10 तत्पु० ) एव सरसी सरोवरः (कर्मधा० ) तस्याः रसः विप्रलम्भाख्यः शृङ्गारः एव रसो जलम् ( कर्मधा० ) तस्मिन् मज्जनम् आसक्तिः ( स० तत्पु०) एव मज्जनम् अवगाहनम् ( कर्मधा०) तनुते स्म चकार, तस्य मज्जनस्य सपदि शोघं चिरं दीर्घकालम् अन्वरं मनः तापयतीत्येवंशीला ( उपपद तत्पु०) चिरमनस्तापकरीत्यर्थः परिणतिः परिणामः विषमा कठोरा दुःसहेतियावत् भय च विषमत्वरूपा समपचत संजाता। मनःशान्त्यर्थ दमयन्त्या हंसात् नलस्य कथा अता किन्तु कामोद्दीपकत्वात् सा तन्मनसि पूर्वापेक्षयाऽधिकतरामशान्तिमननयदिति मावः // 2 // व्याकरण-अतनुज्वरभाक् ज्वर+/मज्+क्विप् ( कर्तरि ), सरसी सरस+गेप् / रसः रस्यते इति/रस्+अच् ( भावे ) / तापिनी ताच्छील्ये पिन् +ङीप् / परिणतिः परि+/ नम् +क्तिन् ( मावे)। अनुवाद-कामज्वर रखे उस ( दमयन्ती) ने प्रियतम की कथा-रूपो सरोवर के रस ( शृंगार) रूपी रस ( जल ) में जो मज्जन ( लगाव ) रूपी मज्जन ( स्नान ) किया, तो उसका शीघ्र ही चिरकाळ तक उसके मोतर ताप ( पीड़ा ) रूपी ताप ( ज्वर ) उत्पन्न कर देनेवाला परिणाम विषम (मीषण; संतत) हो उठा // 2 // टिप्पणी-कामशमन हेतु दमयन्तो ने प्रियतम की कहानी सुनी, तो काम और मी मड़क उठा। इस बात को कवि अपनी अलंकृत शैली से व्यक्त कर रहा है। साधारण ज्वर वाले व्यक्ति को बंधक के अनुसार जल स्नानही वर्जित है, लेकिन यदि वह किसी सरोवर या नदी में स्नान करले, तो उसका साधारण सा ज्वर एकदम विषम (संतत ) ज्वर में बदल जाता है। इस अप्रस्तुत-विधान को कवि ने रूपक द्वारा दमयन्ती पर लागू किया है। कवा पर सरसीत्वारोप, रस (शृंगार ) पर रसव ( जलत्व ) का आरोप, मज्जन ( आसक्ति, लगाव ) पर मजनस्त्र (स्नानत्व ) का आरोप और विषम
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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