________________ 174 नैषधीयचरिते वथा दमयन्त्या उक्तम् हंसेन चानूदितम् तथैव अन्नाच चक्षे अनूदितवान् / मत्तोऽप उक्तं पुनः पुनर्वक्ति / / 135 // व्याकरण-भाषितम /माष् +क्तः ( भावे) / शंसयामास शिस्+णि+लिट् द्विकर्मता। माध्वीकम् मधुना=मधूकपुष्पेण निवृत्तमिति मधु+ईकक / शतकृरवः शतवारमिति शत+कृत्वसुच। अनुवाद-वह नरेश ( नल ) प्रियतमा द्वारा कही बात का 'क्या कहाँ ?' 'क्या कहा ? इस तरह पूछता हुआ हंस से कहलवाता गया। बाद को घने आनन्द-रूपी मदिरा से मत हुआ अपने आप मी सैकड़ों बार उसी तरह दोहराता गया / / 135 // टिप्पणी-यहाँ आनन्द पर माध्वीकत्व का आरोप होने से रूक है / विद्याधर ने स्वमावोक्ति भलंकार कहा है। शम्दालंकारों में किमिति, किमिति में वीप्ता और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। छन्द पूर्ववत् मालिनी है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालकारहीरस्सुतं ___ श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तार्तीयीकतया मितोऽयमगमत् तस्य प्रबन्धे महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 136 // अन्वयः-प्रथम-द्वितीयसर्गवत् / टीका-तस्य महाकाव्ये तार्तीयीकतया तृतीयत्वेन मितः तृतीयः सर्गः शिष्टं पूर्ववत् / / 136 / / ज्याकरण-तार्तीयीकतया--त्रयाणां पूरण इति त्रि+तोयः, ततीय एवेति तृतीय+ईका (स्वार्थ ) तार्तीयीकः तस्य भाव इति तातीयीक+तल्+टाप् / टिहरी पुरिजनिमवाप्य, साम्प्रतं देहरादूने कृतवसतिः / सीतागोद्भूतः पंडितवर-श्रीजयदेव-तनू-जन्मा / / 1 / / महामहोपाध्यायात्, गुरुवरोगिरिधर शर्मचतुर्वेदात् / लवपुर - जयपुर- पुर्योर धिगत - तत्तद्विषयक - शिक्षादीक्षः / / 2 / / भूतपूर्व-प्राचार्योऽम्बाला एस० डी० संस्कृत-कालेजस्य / मोहनदेवः पन्तः, मेघदूतप्रभृतिकाव्यटीकाकारः / / 3 / / षट्सप्तत्यधिकैकोनविंशशतखोष्टाब्दस्य परे भागे। निरमात् 'छात्रतोषिणीम्', श्रीहर्षरचितनैषधीयचरितस्य / / 4 / / मानवज्ञानमपूर्ण त्रुटयः स्वमावतः समापतन्त्येव / समापरा विद्वांसः, क्षमिष्यन्तीति तान् नतशिरसा प्रणुमः / / 5 / / अनुवाद-कविराज "महाकाव्य में तीसरा सर्ग समाप्त हुआ। नैषधीयचरित के तृतीय सर्ग का हिन्दी अनुवाद समाप्त /