SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयसगः अनुवाद-(हे दमयन्ती), अपने हार में लगे मोतियों को तुम ( मार करने वाली मिट्टी को) गोलियो, उस राजहंस ( नृपश्रेष्ठ नल ), रूपी राजहंस ( हंस जाति विशेष ) को शिकार (का पक्षो) और स्वयं को भी सबल काम को वह सुन्दर धनुर्मजरो समझो, जिसकी गोद में निरन्तर रहते रहने से खूब नचाई प्रत्यचा दारा धारण की हुई सारी लीला को (तुम्हारी) वह रोमराजि अपना रही है, जिसमें तुम्हारी चमकती हुई नाभि (डोरी के ) मध्य-च्छिद्र का काम दे रही है / / 127 // टिप्पणी-इस श्लोक में भो कवि ने पिछले श्लोक की ही बात दोहराई है / भेद इतना है कि वहाँ दमयन्ती बाण छोड़ने वाली धनुर्लता बताई गई है, यहाँ गोली छोड़ने वाली धनुमंजरी, जिसे गुलेल कहते हैं। मोतियों के दाने गोलियाँ. नल शिकार का पक्षी और शरीर की रोमावली ज्या बनी। सर्वाङ्गीण रूपयों में कामदेव पर शिकारी का आरोप रह जाने से सर्वाङ्ग-रूपक एकदेशविवतीं बन बैठा है। राजहंस में श्लेष ह / ज्या का विलास ज्या में हो रहता है, रोमालि में नहीं; इसलिए बिम्बप्रतिबिम्बमाव होने से निदर्शना है अर्थात् विलास जैसा विलास रखती है। 'विला' 'विला' में (ब-वयोरमेदात् ) यमक, 'मन्जु' 'मन' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनु पाप्त है। वृत्त शार्दूलविक्रीडित है, जो पिछले श्लोक में थ।। पुष्पेषुश्चिकुरेषु ते शरचयं स्वद्भालमूले धनू रौद्रे चक्षुषि तज्जितस्तनुमनुभ्राष्ट्र च यश्चिक्षिपे / निर्विद्याश्रयदाश्रयं स वितनुस्त्वां तज्जयायाधुना पत्रालिस्त्वदुरोजशैलनिलया तत्पर्णशालायते // 128 // अन्वयः-तज्जितः ( अतएव ) निविंद्य यः पुष्पेषुः ते चिकुरेषु शर-चयम् , त्वद्-भाल-मूले धनु:, रौद्रे चक्षुषि अनुभ्राष्ट्रम् च तनुम् चिक्षेप, सः अधुना वितनुः सन् तज्जयाय त्वाम् आश्रयम् आश्रयत् ( तथा ) स्वदुरोज-शैल निलया पत्राली तत्पर्यशालायते। टीका-तेन नलेन जितः सौन्दर्यद्वारा पराभूतः अतएव निविद्य निवेदम् आत्म-ग्लानिमित्यर्थः पाप्य यः पुष्पेषुः पुष्पाणि इषवो बाणा यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) कामः ते चिकुरेषु केशपाशेषु शराणां पौष्प बाणानां चयम् समूहम् ( 10 तत्पु० ) चिक्षेप / अत्र दमयन्त्याः निजकेशबद्धानि पुष्पाणि कामेन प्रक्षिप्तैः निजपौष्पशरैरमे देनोपचर्यन्ते, तब यद् मालं ललाटं तस्य मूले अधोमागे धनुः चापं चिक्षेप, अत्रापि दमयन्त्या भ्रवी कामस्य धनुष्ट्वेनोपचयेंते, रौद्रे रुद्रसम्बन्धिनि रुद्रस्येत्यर्थः चक्षुषि तृतीयनयने अनुभ्राष्ट्रम् भ्राष्ट्र इति ( अव्ययीभाव ) मर्जनपात्रे इत्यर्थः च तनुं शरीरं चिक्षेप झिवाऽऽत्मघातमकरोदित्यर्थः, स कामोऽधुना सम्प्रति वितनुः वि विगतं तनुः शरीरं यस्य तथाभूतः ( प्रादि ब० वी०) अनङ्गः सन् तस्य नलस्य जयाय विजयार्थम् ( 10 तत्पु० ) वो दमयन्तीम् आश्रयम् आश्रयस्थानम् आश्रयत् आश्रितवान् तथा तव उरोजो कुचौ ( 10 तत्पु० ) एव शैलौ पर्वतौ निलयः स्थानं ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) तत्र विद्यमानेत्यर्थः पत्राणां चित्रित-पत्रभंगानाम् आली पङ्क्तिः, अत्र चित्रित-वल्लो-पत्राणां वास्तविक वल्ली पत्रैः सहौपम्यमावो न त्वमेदाध्ययसायः, अतएव तस्य कामस्य पत्राणां शाला (10 तत्पु० ) पर्णकुटी व आचरति, पर्णकुटयाः कार्य करोतोति यावत् / दमयन्त्याः कचबद्धपुष्पापां कामोद्दीपकत्वात् कामबाणत्वम् , भ्रुवोरपि कामोद्दीपकत्वाद
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy