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________________ तृतीयसर्गः 151 बहिः प्रकाशितं भवतीति भावः, सा विधेयीभूताया औचित्याः प्राधान्येनात्र खोजिमाता शेया तस्य नलस्य मुखस्य वदनस्य ( 10 तत्पु० ) तस्य नलस्य वैरो रिपुः (10 तत्पु० ) यः पुष्पायुधः पुष्पाणि आयुधानि शरा यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) पुष्पशरः काम इत्यर्थः ( कर्मधा० ) तस्य मित्रं वयस्यः / प० तत्पु.) चन्द्रः चन्द्रमाः ( कर्मधा० ) तेन सह यत् ( मुखस्य ) सख्यं मैत्री (तृ० तरपु.] तस्य औचिती औचित्यं खलु इत्युत्प्रेक्षायाम् , अयं भावः नलस्य शत्रुः कामः तत्पीडकत्वात् कामस्य मित्रं चन्द्रः उद्दीपकत्वात् , चन्द्रस्य मित्रं नल-मुखं तत्तुल्यकान्तित्वात् / नलो विरहे व्यथमानो हृदि संकल्पकल्पितया दमयन्त्या सह गुप्त-संभाषणं करोति, नलशत्रुः कामश्च स्वमित्रस्य चन्द्रस्य मित्रस्य नलमुखस्य सहायतया तद्रहस्य-मेदनं करोति / मुखस्य पाण्डुतया कृशतया चावेद्यते नलो दमयन्तीमुपलक्ष्य हृदि व्यथते इति // 107 // व्याकरण-मन्त्रयते /मत्रि ( गुप्तभाषणे)+लट् / सख्यम् सख्युर्भाव इति सखिन्+ यत् / भोचिती उचितस्य माव इति उचित+व्य+कोप् , यकार-लोप / अनुवाद-उस ( नल ) का हृदय एकान्त में तुम्हारे साथ जो कुछ गुप्त बातें किया करता है, उसकी ( सारी ) पोल जो उस ( नल ) का मुख स्पष्ट रूप से खोल देता है वह उस ( नल ) के वैरी कामदेव के मित्र चन्द्रमा के साथ उस ( नल ) के मुख की मित्रता के लिए उचित (ही) है // 10 // टिप्पणी-यहाँ कवि मित्र के मित्र को सहायता लेकर शत्रु की गुप्त बातों का मेद लेने की नोति की ओर संकेत कर रहा है / नल कामदेव का शत्रु है। वह उसे फूक बो रहा है। वह अपने शत्रु नरु के हृदय की सारे मीतरी रहस्यों का पता लगाना चाहता है। इस हेतु वह अपने मित्र चन्द्रमा ( क्योंकि चन्द्रमा कामोद्दीपक होता है ) को कहता है कि यार, नल का मुख तुम्हारा मित्र है, मेरा नहीं, इसलिए उससे नल का रहस्य-मेद करवा दो। फलतः चन्द्रमा के मित्र ( सौन्दर्य में समान होने के कारण ) नल-मुख ने यह उचित ही किया कि नल के हृदय की सारी पोल खोल दी कि वहाँ क्या-क्या बात हो रही हैं। इसीलिए अंग्रेजो की एक कहावत है 'Face is the index of mind' (चेहरा मन का दर्पण होता है। विद्याधर ने खलु को उत्प्रेक्षा-वाचक मानकर यहाँ उत्प्रेक्षा मानी है। हम यहाँ हृत् , मुख, पुष्पायुध, और चन्द्र का चेतनीकरण देखकर समासोक्ति कहेंगे। 'मन्त्रयते' 'मन्त्रयते' 'मुखं' 'मुखस्य' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इस श्लोक में मी कवि कामदशाओं में से पूर्वोक्त संकल्प को आर ही संकेत कर रहा है। स्थितस्य रात्रावधिशय्य शय्यां मोहे मनस्तस्य निमज्जयन्ती / आलिङ्गय या चुम्बति लोचने सा निद्राधुना न त्वदृतेऽङ्गना वा // 108 // अन्वयः-रात्रौ शय्याम् अधिशय्य स्थितस्य तस्य मनः मोहे निमज्जयन्ती या आलिङ्गय लोचने चुम्बति, सा निद्रा स्वद् ऋते अङ्गना वा अधुना न ( अस्ति ) / टोका रात्री निशायां शय्यां शयनीयम् अधिशय्य शव्यायां शयित्वा स्थितस्य स्थिति कृतवतः तस्य नलस्य मनः मोहे वैचित्ये संशाकोपे इति यावत् अथ च महति आनन्दे निमज्जवन्ती तदशीकुर्वती सती या आलिङ्गय अङ्गानि शिथिलीकृत्य अथ च आश्लिष्पमेयने नेत्रे चुम्बति लोचनाभ्यां सम्बध्यते
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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