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________________ 144 नैषधीयचरिते अनुवाद-इस तरह कहने वाली ( दमयन्ती) ने जो लज्जा का परित्याग किया, वह ( मले हो) हमारे मन में अनुचित लगे, किन्तु उसकी निर्दोषता का साक्षी काम है, जिसने उन्मत्त बनाकर उसके मुंह ) से वे-वे बात कहलवा दीं // 17 // टिप्पणी-विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कहते हैं। उनका अभिप्राय यह हो कि ऐसी-ऐसी बातें कहने का सम्बन्ध न होने पर भी कवि ने अपनो कल्पना से सम्बन्ध बताया है। बोलने का कारण कामक्त उन्माद बताने से काव्यलिंग है / 'चिती' 'चेत' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। उन्मत्तमासाथ हरः स्मरश्च द्वावायसीमां मुदमुद्वहेते। पूर्वः स्मरस्पर्धितया प्रसून नूनं द्वितीयो विरहाधिदूनम् // 18 // अन्वयः-हरः स्मरः च-द्वौ अपि उन्मत्तम् आसाद्य असीमाम् मुदम् उद्वहेते; पूर्वः परस्पर्षिया प्रसूनम् ( उन्मत्तम् ) द्वितीयः ( परस्पर्षितया ) विरहाधिदूनम् ( उन्मत्तम् ) (आसाथ ) // टीका-हरः महादेवः स्मरः कामश्च दौ अपि उन्मत्तम् आसाथ प्राप्य न सीमा अन्तो यस्यास्तथामूताम् अपरिमितामित्यर्थः ( नञ् तत्पु० ) मुदम् हर्षम् उदहेते दधाते। पूर्वः हरः परेण शत्रुषा कामदेवेनेत्यर्थः स्पर्धते इति परस्पों ( उपपद तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता तया कामं प्रति प्रतिस्पर्धयेति यावत् प्रसूनम् उन्मत्तम् ( धत्तुरक-पुष्पम् ) आसाथ मुदमुदहते द्वितीयः कामदेवः ( अपि परस्पर्धितया) विरहेण वियोगेन य आधिः ( तृ. तत्पु०) मनोवेदना तेन दूनम् परितप्तं परिपीडितमिति यावत् (तृ० तत्पु० ) उन्मत्तम् ( उन्मादयुक्त जनम् ) आसाद्य मुदमुबहते नूनमिव ( 'उन्मत्त उन्मादवति धत्तर-मुचुकुन्दयोः' इति विश्वः ) हर स्मरयोः परसरद्वेषिता प्रसिद्धव। हरं उन्मत्तम् आसाथ हृदि हृष्यन्तमवलोक्य स्मरेणापि मनसि कृतं मयापि उन्मत्तमासाद्य कथं न हर्षितव्यमिति। शत्रुवु परस्परम् आयुधादि-विषये प्रतिस्पर्धित्वं तदाप्तौ च हर्षनिर्भरत्वं प्रत्यक्षमेव लोके संदृश्यते // 98 // व्याकरण-मुदम् /मुद्+क्विप् ( मावे ) / दून/+क्तः ( कर्तरि ) त को न / अनुवाद-महादेव और कामदेव-दोनों उन्मत्त को प्राप्त करके असीम आनन्द लेते हैं-पहला अर्थात् महादेव शत्रु ( कामदेव ) के साथ स्पर्धा में प्रसून उन्मत्त ( धतूरे के फूल ) को प्राप्त करके, तो दूसरा अर्थात् कामदेव शत्र ( महादेव ) के साथ स्पर्धा में विरहव्यथा-पीड़ित उन्मत्त ( उन्मादयुक्त जन ) को प्राप्त करके // 18 // टिप्पणी-दोनों अर्थ प्रकृत होने से यहाँ उन्मत्त शब्द में श्लेष है। परस्पर प्रतिस्पर्धा में एकदूसरे की चीज प्राप्त करके प्रसन्न होने की कल्पना में उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक शब्द 'नूनम्' है। मल्लि० के शब्दों में- तेन हरवत् स्मरोऽप्युन्मत्तप्रिय इत्युपमा गम्यते'। 'मुद' 'मुद्' में छेक, 'सून' 'नूनं' 'दूनम्' में पदान्तगत अन्त्यानुपात और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / तयामिधात्रीमथ राजपुत्री निर्णीय तां नैषधबद्धरागाम् / अमोचि चञ्चपुटमौनमुद्रा विहायसा तेन विहस्य भूयः // 99 // अन्धयः-अथ तथा अभिधात्रोम् ताम् राजपत्रोम् नैषषः बद्ध-रागाम् निर्षीय तेन विहायसा विहस्य भूयः चञ्चपुट "मुद्रा अमोचि /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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