SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हृतोयसर्गः 141 इत्यमरः) (त० त०) यः संमोगः निधुवनं तेन नितान्तम् अत्यर्थ यथा स्यात्तथा तुष्टे तृप्ते शमितकामे इत्यर्थः ( तृ. तत्पु०) नैषधे न त्वया इदं मत्प्रणयनिवेदन-रूपं कार्य न निगाघम् न निगदितव्यम् , हि यतः अपाम् जरूस्य तृप्ताय जनाय स्वादुः सुरसा सुगन्धिः सुष्ठु गन्धो यस्यां तथाभूता (प्रादिक. नो०) तुषारा शीतला च ( 'तुषारः शीतलो शीतः' इत्यमरः ) वारिण: जलस्य धारा न स्वदते रोचते। जलेन तृप्ति गप्ताय जनाय शीतलमपि सुगन्धितमपि जलं यथा न राचते तथैव स्त्रीसंमागेन भृशं तृप्ति प्राप्लाय जनाबापि सुन्दर्यप्यन्यस्त्री न राचते इति मावः / / 93 // - व्याकरण-निगायम्-नि+/गद्+ण्यत् , अनुपसर्ग गद् से ही यत् का विधान है, न कि सोपसर्ग गद् से ( 'गद-मद चर-यमश्चानुरसगें' ( 3 / 1 / 110) / अपां तृप्ताय ( 'तृप्त्यर्याना करणे षष्ठी च' से) करण में षष्ठो / सुगन्धिः 20 बो० में गन्ध को (गन्धस्येत्० 5 / 4 / 135) इकारान्तादेश / तृप्ताय स्वदते 'रुच्यर्थानाम्' 1.4.33 से चतुथीं। अनवाद–अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ संभोग से पूर्ण तृप्त हुए नल के प्रति यह ( मेरा प्रणवनिवेदन रूप ) कार्य मत कह बैठना, कारण यह कि जल से तृप्त हुये बैठे व्यक्ति को स्वादु, सुगन्धित और शीतल जलधारा नहीं रुचती / / 63 / / टिप्पणी-यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध का परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्बमाव होने से दृष्टान्त अलंकार है, लेकिन विद्याधर अर्थान्तर-न्यास कह रहे हैं / शब्दालंकारों में 'स्वादुः' 'स्वद' में छेक, 'द्वान्न, 'तान्त' में पदानगत अन्त्यानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। स्वया निधेया न गिरो मदर्थाः क्रुधा कदुष्णे हृदि नैषधस्य / पित्तेन दूने रसने सितापि तिक्तायते हंसकुलावतंस // 94 // अन्वयः-हे हंसकुलावतंस ! नेषवस्य हृदि क्रुधा कदुष्णे सति मदर्थाः गिरः स्वया न निधेयाः, रित्तेन रतने दूने सति सिता अपि तिक्तायते / टीका-हंसानां मरालानां कुलं वंशः (10 तत्पु०) तस्मिन् अवतंतो मूषणम् (स० तत्पु०) तत्सम्बुद्धौ हे हंसकुलावतंस! नैषधस्य नलस्य हृदि हृदये ऋधा क्रोधेन कदुष्णे ईषदुष्णे किमपि तृप्ते इति यावत् सति मदर्थाः मह्यम् इमा इति ( 'अर्थेन नित्यसमासो विशेष्य-लिङ्गता चेति वक्तव्यम्') गिरः वचनानि त्वया न निघेया उपन्यसनीयाः, मद्विषये न किमपि वक्तव्यमित्यर्थः, पित्तेन पित्तदोषेण रखने बिहेन्द्रिये दूने दूषिते सति सिता शर्करा अपि तिक्तायते तिक्तवत् आ वरति / अहं सिकतावत् मधुरापि तदानी निम्बवत् तिक्ता स्थामिति भावः // 94 // व्याकरण-नैषधस्य निषधानाम् अयमिति निषध अण् / कदुष्णम्-ईषदुष्पमिति ईषदर्थ में उष्ण शब्द से पूर्व शब्द को विकल्प से कदादेश / रसनम् रस्यते आस्वायतेऽनेनेति रस+ल्युट् ( करणे ) / दून-/ +क्त, त को न। सिकायते तिक्त +व्यङ् ( आचाराथें)। भनुवाद-हे हंसकुलभूषण ! नल का हृदय जब क्रोष से कुछ गरमाया हुआ हो, तो मेरे सम्बन्ध में उनसे बात मत करना, पित्त के कारण जिला के दूषित रहने पर चीनी मी कड़वी जैसी रुगती है // 94 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy