SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नैषधीयचरिते करने वाले कार्य पर ही सोच-विचार किया जा सकता है। गुरु के उपदेश ( के समय ) को प्रतीक्षा न करने वालो तीव्र प्रतिमा की तरह तोत्र (विरह-) पीड़ा कमो समय को प्रतीक्षा नहीं करती // 11 // टिप्पणी-यहाँ अन्तिम पाद की सामान्य बात द्वारा पूर्वोक्त विशेष बात का समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास अलंकार है जिसकी तीसरे पाद में स्थित उपमा के साथ संसृष्टि है। विद्याधर ने उपमा और काव्यलिंग माना है / "विल' 'वेला' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अभ्यर्थनीयः स गतेन राजा स्वया न शुद्धान्तगतो मदर्थम् / प्रियास्यदाक्षिण्यबलास्कृतो हि तदोदयेदन्यवधूनिषेधः // 12 // अन्वयः-गतेन त्वया शुद्धान्त-गतः राजा मदर्थम् न अभ्यर्थनीयः हि तदा प्रिया कृतः अन्य-वधू. निषेधः उदयेत् / टीका-गतेन इतः तत्र प्रस्थितेन स्वया शुद्धान्ते अन्तःपुरे ('शुद्धान्तश्चावरोधश्च' इत्यमरः ) गतः स्थितः अन्तःपुरमहिलामध्यवर्तीत्यर्थः ( स० तत्पु०) राजा नलः मदर्थम् मह्यम् ( च. तत्पु०) (अर्थेन सहास्मदो नित्यसमासः) न अभ्वर्थनीयः प्रार्थनीयः तं प्रति मत्मविषयक वार्ता न प्रवर्तनीयेत्यर्थः, हि यतः तदा तस्मिन् समये प्रियाणां प्रियतमानाम् यानि आस्यानि मुखानि (प. तत्पु. ) तेषु यत् दाक्षिण्यम् छन्दानुवर्तित्वम् समानानुरागशिष्टाचार भावनेति यावत् ( स० तत्पु०) कृतः प्रवर्तितः अन्याः ताभ्योऽतिरिक्ता मत्सदृश्यो वा वध्वः स्त्रियः ( कर्मधा० ) तासां निषेषोऽनङ्गीकार उदयेत प्रादुर्भवेत् / अन्तःपुरस्त्री: प्रति प्रेमशिष्टाचारं प्रदर्शयन्नसौ मा ताव देताः सुन्दर्यः कुप्यन्तु इति कृत्वा स्वद्-द्वारा मत्प्रणयनिवेदनं प्रतिषेधेदिति भावः // 92 // व्याकरण-दाक्षिण्यम दक्षिणस्य माव इति दक्षिण+ध्यञ् / दक्षिण शब्द यहाँ एक पारिमाषिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दक्षिण नायक साहित्य में उसे कहते हैं जो एक से अधिक नायिकाये रखता है और शिष्टाचार के रूप में सभी के साथ समान प्रेम दिखाता है मले हो हृदय से वह किसी विशेष नायिका पर आकृष्ट क्यों न हो। वधू-उसने पितृगृहात् पति गृहम् इति/वह + अधुक् , ह को ध / उदयेव उत्+/अय् +लिङ ( आत्मनेपद-विधि अनित्य होने से परस्मै०) / अनुवाद-जब राजा ( नल ) अन्तःपुर की महिलाओं के मध्य गया हुआ हो, तो तुम मेरी तरफ से प्रार्थना मत करना, क्योंकि प्रियतमाओं के प्रति दाक्षिण्य-प्रेम का शिष्टाचार दिखाने के अनुरोध से वह उस समय अन्य स्त्री को ना कर दे // 92 // टिप्पणी-यहाँ अन्य नायिकाओं के समक्ष प्रणय निवेदन न करने का कारण बताया गया है, अतः काव्यलिंग है / 'गते 'गतो' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। शुद्धान्तसंमोगनितान्तसुष्टे न नैषधे कार्यमिदं निगाद्यम् / अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वादुः सुगन्धिः स्वदते तुषारा / / 13 // अन्वय-शुद्धान्त 'तुष्टे नैषधे त्वया इदम् कार्यम् न निगाधम् ; हि अपाम् तृप्ताय स्वादुः, सुगन्धिः, तुषारा ( च ) वारि-धारा न स्वदते / / टीका-शुद्धान्तेन अवरोधेन अन्तःपुरवर्ति-स्त्रीजनेनेति यावत् सह ('शुद्धान्तश्चावरोधश्च'
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy