________________ . तृतीयसर्गः व्याकरण-नीरन्धित-निः निर्गतं रन्ध्र छिद्रं यस्मात् इति नीरन्ध्रम् , नौरन्ध्र करोतीति नीरन्ध्र+णिच् + क्तः कर्मणि ( नामधातु) / द्वयम् द्वौ अवयवो अस्येति द्वि+तयप्, तयप् को अयच् / अनुवाद-उन ( नल ) के सम्बन्ध में मैंने ( लोगों से ) सुना और मोह-वश दिशा दिशाओं में उन्हें देखा / निरन्तर ( एकतान ) शान-धारा से उनका ध्यान किया है अब उनको प्राप्ति या प्राणविसर्जन ये दोनों तुम्हारे हाथ में हैं, ( किन्तु इन दोनों में ) एक ही शेष रहेगा ( जिस तरह शास्त्रों द्वारा सुने सवत्र व्याप्त देखे तया निरन्तर ( एकतान ) ज्ञान धारा से ध्यान में लाये हुए ब्रह्म की प्राप्ति अथवा अप्राप्ति किमी गुरु के अधीन हुआ करतो है-वह ब्रह्म जो द्वैत दोखता हुआ मी अन्ततः शुद्ध रूप में एक ही शेष रह जाता है // 82 // ___ टिप्पणी-द्वयमेकशेषः मल्लिनाथ और नरहरि ने 'द्वयमेव शेषः' पाठ दिया है मल्लि० ने 'द्वयमेव द्वयोरन्यतर एवेत्यर्थः / शेषः कार्यशेषः' और नरहरि ने 'तवैव हस्ते द्वयं शेष भास्ते / एतद् द्वितयमवशिष्टं त्वदधीनमित्यर्थः' व्याख्या की है। हम नारायण का पाठ हे रहे हैं / यहीं नल प्राप्ति प्रस्तुत अर्थ है / व्यज्यमान ब्रह्म प्राप्ति रूप अप्रस्तुत अर्थ को प्रस्तुत अर्थ से संगति बैठाने हेतु दोनों अर्थों में परस्पर सादृश्य-सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ रही है इसलिये यहाँ उपमा ध्वनि है। विद्याधर ने समुच्चयालंकार माना है। यह वहाँ होता है जहाँ 'खले करीतन्याय' से अनेक कारकों, क्रियाओं अथवा गुणों का युगपत् अन्वय हो / 'यहाँ अनेक क्रियाओं का युगपत् अन्वय है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपात है। सञ्चीयतामाश्रतपालनोत्थं मत्प्राणविश्राणनजं च पुण्यम् / निवार्यतामार्य वृथा विशङ्का मद्रेऽपि मुद्रेयमये भृशं का // 83 // अन्वय-आश्रुत-पालनोत्थम् मरमाणविनापनजं च पुण्यम् संचीयताम् हे आर्य, वृथा विशका निवार्यताम् अये, मद्रे अपि भृशम् इयम् मुद्रा का? टीका-आश्रुतस्य प्रतिज्ञातस्य अर्थस्य 'तदप्यवेहि स्व-शये शगलु' इति रूपेण कृतायाः प्रतिशाया इत्यर्थः यत् पालनं प्रणम् (10 तत्पु० ) तस्मात् उत्तिष्ठति जायते इति तथोक्तम् / उपपद तत्पु० ) मम प्रापानाम् अमूनाम् (10 तत्पु० ) यत् विश्राणनं मह्यमेव प्रदानम् (10 तत्पु० ) तस्मात् जायते उत्पद्यते इति तथोक्तम् ( उपपद तत्पु०) च पुण्यं धर्मः संचीयताम् उपायंताम् / प्रतिशा-पाउनेन तत्कृतमत्प्राणरक्षणेन च ते महान् धर्मो भविष्यात अन्यथा पापं त्वयि लगिष्यतीति भावः / हे आय श्रेष्ठ, वृथा मुधां विशङ्का 'अहं पत्यन्तरं संश्रयिष्ये' इति कल्पनेत्यर्थः निवार्यता स्वमनसोऽपसार्यताम् / अये हंस, मद्रे शुमे अपि वस्तुनि भृशम् अतिशयेन श्यम् एषा मुद्रा मन्त्रणम् मूकीभाव इत्यर्थः का ? शुभकायें न तूष्णीं भवितव्यमिति भावः / 83 / / ब्याकरण-पालनोस्थम् उत्तिष्ठतीति उत् + स्था+कः / विभाजनम् वि+Vषण + पि+ल्युट भावे / जम् /जन्+डः / विशङ्का वि+Vशक् +:+टाप् / / ___अनुवाद-प्रतिशत बात के पालन करने तथा मुझे प्राण-दान देन से होने वाला पुण्य बटोरिए; हे आर्य, व्यर्थ की शंका दूर कीजिए; हे हंस, अच्छे काम में भी ( तुम्हारी ) यह प्रति चुप्पी कैसी?