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________________ 120 नैषधीयचरिते म्याकरण-पुरुहूतः-यास्कानुसार पुरु बहु यथा स्यात्तथा अयवा पुरुभिः बहुभिः हूतः स्तुतः / श्रवः भूयतेऽनेनेति/+ अस् (करणे) / वैमस्पम् विमत+ध्यञ् / ऊचे ब+लिट ब्रू को वचादेश मात्मने। मानवाद-मही-महेन्द्र ( मीम ) की पुत्री दमयन्ती कान के मीतर घुसे हुये हस के उन वचनों को असहमति में हिकाये हुए शिर द्वारा ब हर निकालकर-जैसे, लज्जा का बन्धन भी ढोला किये हुए फिर बोली // 76 // टिप्पणी-यहाँ विधूय इव' में उत्प्रेक्षा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। मदन्यदान प्रति कल्पना या वेदस्त्वदीये हृदि तावदेषा / निशोऽपि सोमेतरकान्तशङ्कामोङ्कारमग्रेसरमस्य कुर्याः // 75 / / अन्धयः-मदन्य-दानम् प्रति य कल्पना ( अस्ति ) एषा तावत् स्वदीये हृदि वेदः ( चेत् ) (तहिं ) निशः अपि सोमेतर-कान्त शङ्काम् अस्य ( वेदम्य ) अग्रेसरम् ओङ्कारम् कुर्याः / टीका-मम अन्यस्मै नलमिन्नाय वराय (प. तत्पु० ) दानं पितृकर्तृकं प्रदानं (च० तत्पु०) प्रति उहिश्य 'पितुनियोगेन' इत्यादिः या कल्पना सम्भावना अस्ति एषा कल्पना तावत् वस्तुतः त्वदीये तव हृदि हृदये वेदः वेदवाक्यम् वेदवाक्यवत् प्रमाणमित्यर्थः चेत् तहिं निशः रात्रेः अपि सोमात चन्द्रात इतरः मिन्नः (पं० तरपु०) यः कान्तः प्रियः ( कर्मधा० ) तस्य शङ्का सम्भावनाम् (प. तत्पु० ) अस्य वेदवाक्यस्य अग्रेसरम् पुरोवर्तिनम् ओङ्कारं प्रणवं कुर्याः विधेहि। प्रत्येकवेदवाक्यं प्रणवेनार मते इत्यस्ति नियमः / ममान्यस्मै प्रदानस्य सम्भावना तब हृदये वेदवाक्यम स्त चेत्तहिं निशा चन्द्रेतरं पति करोतीति संभावना तद्वेदवाक्ये प्रणवं कुरु / यथा निशायाः पतिः चन्द्रतरो न मवति, तथैव मम पतिरपि नलेतरो न भवतीति भावः // 75 // व्याकरण-स्वदीयम् तव इदम् इति युष्मत् +छ, छ को ईय युष्मत् को त्वदादेश / भोशरः ओं+कारः ( स्वाथें ) / अग्रेसरम् अग्रे सरति गच्छतीति अग्रे+/स+टः ('पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सतेः।३१।१८) सूत्र में 'अग्रे' यह एदन्तस्व निपातित है। महोजीदीक्षित ने शंका उठाई है 'कथं तहि-'यूथं तदग्रसरगवितकृष्णसारम्' इति ? उत्तर मी दिया है-'बाहुलकादिति हरदत्तः'। अनुवाद-मुझे अन्य को दिए जाने के सम्बन्ध में जो संमावना है, यह यदि तुम्हारे हृदय में सचमच वेद-वाक्य है, तो रात्रि का चन्द्रमा से मिन्न पति होने की सम्भावना को इस वेदवाक्य के आगे आनेवाला मोंकार बना दो।। 35 // टिप्पणी-यहाँ 'कल्पना' पर वेदत्वारोप और 'शङ्का' पर भोकारत्वारोप होने से रूपक है। दोनों का परस्पर कार्यकारण माव होने से यह परम्परित है / शम्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। सरोजिनीमानसरागवृत्तेरनर्कसम्पर्कमतर्कयित्वा / मदन्यपाणिग्रहशङ्कितेयमहो महीयस्तव साहसिक्यम् // 76 // अम्बयः-सरोजिनी वृत्तः अनर्क-सम्पर्कम् अतर्कयित्वा इयम् मदन्यपाषिप्रहशङ्किता तय पहीयः साहसिक्यम्-इत्यहो।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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