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________________ तृतीयसर्गः नौस्तरणिस्तरीः' इत्यमरः ) स्यात् , न कतमापोति काकुः / कयमपि ब्रह्मा लोकापवादात् प्रास्मानं न मोचयिष्यतीति मावः // 51 / / ___ म्याकरण-विज्ञः वि+/ +कः। उत्तरीतुम् उत् +/t+तुम् वृतो वा' 6 / 2 / 38 से विकल्प से दोष / तरी: तरन्यन येति त+ई: / कतमा विद्या तरी यहाँ 'विधा' और 'तरोः' दोनों विशेष्यों का परस्पर सम्बन्ध बैठाने हेतु हमारे विचार से 'कामविधा' (कमा विधा यस्या सा) यों समस्त होना चाहिये अयवा 'तर्याः कनमा विधा' यों तरो को षष्ठयन्त होना चाहिये। संभवतः इसी त्रुटि को देख कर चाण्डू पण्डितने 'तरोः' न देकर 'कतमा पुनः स्यात्' पाठ दिवा है / अनुवाद-अथवा तुम्हारा (नल से भिन्न वर के साथ सम्बन्ध जोड़ने पर सर्वशता के यश के साथ जीवन बिताये हुए ब्रह्मा के लिये लोकारवाद-रूपी सागर पार करने हेतु कौन से प्रकार को नौका होमी? टिप्पणी -यहाँ जनापवाद पर अर्णवत्वारोप होने से रूाक है / 'विवा' 'विधा' में यमक, और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। आस्तां तदप्रस्तुतचिन्तयालं मयासि तन्वि अमितातिवेलम् / सोऽहं तदागः परिमाष्टुकामः किमीप्सितं ते विदधेऽभिधेहि / / 52 // अन्वय-(हे भैमि ) तत् आस्ताम् , अप्रस्तुत-चिन्तया अलम् , हे तन्धि, मया खम् अतिबेठम् अमिता असि, सः अहम् तत् आगः परिमाष्टुंकामः सन् 'ते किम् ईप्सितम् विदधे-' (इति) अमिधेहि / टोका-(हे भैमि ) तत् नल-वर्णनं तेन सह व वत्सम्बन्धपतिराहनम् आस्ताम् तिष्ठतु त्यज्यतामिति यावत् , अप्रस्तुतस्य अप्रसक्तस्य चिन्तया (10 तःपु०) विचारेण अउम् चिन्ता न कर्तव्येत्पर्यः / हे तन्त्रि, कृशाङ्गि, मया हंसेन त्वम् अतिक्रान्तं वेलां सोमामित्यतिवेलं यथा स्यात्तथा (प्रादि तत्पु०) अत्यधिकमित्यर्थः श्रमिता श्रमं प्रापिता अलि, सोऽहं तत् त्वच्छम यात्मकम् आगः अपराधं परिमार्ट प्रोन्छितुमपनेतुमिति यावत् कामो यस्य तथाभूतः सन् 'ते तव किम् ईप्सितर अभीष्ट विदवे कुत्रे (इति) अभिषेहि कथय / 52 // व्याकरण-चिन्तया भलम् वारणार्थक अलम् के योग में तृतीया है / श्रमिवा श्रम्+पिच् क्त+टाप् ( कर्मणि ) / परिमाष्टु कामः 'तुं काममनसोरपि' से मकारलोप / ईप्सितम्प्राप् + सन्+क्तः ( कर्मणि ) / किमीप्सितं विदधे यह 'अभिधेहि' किया का संशात्मक उपवाक्य का (Noun clause ) कर्म बना हुआ है। अनुवाद-(हे भैमी,) उस ( नलवाली बात ) को छोड़ो, बेमसलन की बात सोचने से क्या ? मैंने तुम्हें बहुत ही थकाया है, ( अतः ) ( अपने ) उस अपराध का परिमार्जन करना चाहता हुआ मैं तुम्हारा क्या अभीष्ट करूँ, कहो // 52 // टिप्पणी-कामः' 'किमी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्राप्त है।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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