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________________ द्वितीयसर्गः टिप्पणी-यहाँ 'कीरगीरिव' में उपमा, 'चार' 'चारु' में छेक और अन्यत्र वृत्यनुप्रास है। स जयत्यरिसार्थसार्थकीकृतनामा किल भीमभूपतिः। यमवाप्य विदर्भभूः प्रभु हसति चामपि शक्रमर्तृकाम् // 16 // अन्वयः-अरिसार्थ.."नामा स मीम-भूपतिः जयति किल, यम् प्रभुम् अवाप्य विदर्भ-मूः शक्रमर्तृकाम् वाम् अपि हसति / / टीका-अरीणां शत्रणां सार्थः समूहः (10 तत्पु० ) तस्मिन् सार्थकीकृतम् अथेन सह वर्तते इति सार्थकम् (ब० बी०) असार्थकं सार्थक सम्पद्यमानं कृतमिति सार्थ० (स० तत्पु०) नाम भीम इति संशा ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः ( ब० बी० ) विभ्यत्यस्मात् शत्रव इति स प्रसिद्धो भीमश्चासौ भूपतिः ( कर्मधा० ) जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते किलेति प्रसिद्धौ, यम् भीमभूपतिं प्रभुं स्वामिनम् अवाप्य प्राप्य विदर्माणां भूः भूमिः विदर्भदेश इत्यर्थः शक्र इन्द्रो मर्ता यस्याः तथाभूताम् ( ब० वो 0 ) द्याम् दिवम् . अपि हसति हासं करोति तिरस्करोतीत्यर्थः / / 16 / / ____ व्याकरण-सार्थकीकृत अर्थ के साथ के 'सह' को 'स' और ब० वी० में कप् समासान्त होकर फिर अभूत-तद्भाव में 'वि' हुआ है। भीम-विभ्यत्यस्मात् इस अपादान अर्थ में /मी धातु से 'भियो मः' यह प्रोणादिक म प्रत्यय है। भनुवाद-शत्र-समूह में ( अपना ) नाम सार्थक किये हुए वह भीम भूपाल ( अपने ) उत्कर्ष में सर्व-प्रसिद्ध है जिनको स्वामी-रूप में पाकर विदर्भ देश की भूमि इन्द्र को अपना स्वामी बनाये स्वर्ग-भूमि पर मी हँस देती है // 16 // टिप्पणी-यहाँ मल्लिनाथ का कहना है कि धु के साथ हास का सम्बन्ध न होने पर भी हास का सम्बन्ध बताने से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति है, किन्तु वास्तव में यहाँ भतिशयोक्ति नहीं है। दण्डी के अनुसार 'हँसना', 'तराजू पर चढ़ना' 'लोहा लेना' इत्यादि लाक्षणिक प्रयोगों का सादृश्य में पर्यवसान होता है, अतः यहाँ उपमा है। उसका 'द्यामपि' में अपि शब्द से अन्यमर्तृक देशों की तो बात ही क्या ? इस अर्थान्तर की आपत्ति से अर्थापति के साथ संसृष्टि है। शब्दालंकारों में 'सार्थ' 'सार्थ' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। दमनादमनाक्प्रसेदुषस्तनयां तथ्यगिरस्तपोधनात् / वरमाप स दिष्टविष्टपत्रितयानन्यसदग्गुणोदयाम् // 17 // अन्वयः-सः अमनाक् प्रसेदुषः दमनात् तथ्य-गिरः तपोधनात् दिष्ट..... दयाम् तनयां वरं आप। टीका–स भीमभूपतिः न मनाक् ईषत् इत्यमनाक (नञ् तरपु०) अत्यधिकमित्यर्थः यथा स्यात्तथा प्रसेदुषः प्रसन्नात् दमनात् एतत्संज्ञकात् तथ्या सत्या गीः वापी (कर्मधा०) यस्य तथाभूतात्. (ब० वी०) तप एव धनं यस्य तस्मात् (व० वी०) ऋषेरित्यर्थः दिष्टः कालः ( 'कालो दिष्टः' इत्यमरः) च विष्टपं भुवनं च ( 'विष्टपं भुवनं जगत्' इत्यमरः ) दिष्ट विष्टपे ( द्वन्द्व 0 ) तयोः त्रितयं त्रयम् (10 तत्पु०) भूत-भविष्यद्-वर्तमानकालाः स्वर्ग मर्त्य-पाताललोकाश्चेत्यर्थः तस्मिन् न
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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