________________ 1 . सप्तमः सर्गः "विषयाऽऽत्मतयाऽरोप्ये प्रकृतार्थोपयोगिनि / परिणामो भवेत्तुल्यातुल्याऽधिकरणो द्विधा // " (10-34 ) / / 60 // वियोगबाष्पाचितनेत्रपप्रच्छमान्वितोत्सर्गपयःप्रसूनौ / कौँ किमस्या रतितत्पतिभ्यां निवेद्यपूपो विधिशिल्पमीदृक् // 61 / / अन्वयः-- ईदक् विधिशिल्पम् अस्याः कणौं वियोगबाष्पाऽञ्चितनेत्रपद्यच्छद्माऽन्वितोत्सर्गपयःप्रसूनौ रतितत्पतिभ्यां निवेद्यपूपो किम् ? // 61 // व्याख्या-ईदृक् = ईदृशं, विधिशिल्पं = ब्रह्मनिर्माणम्, अस्याः-दमयन्त्याः, कणौं = श्रती, वियोगबाष्पाऽञ्चितनेत्रपद्माच्छमाऽन्वितोत्सर्गपयःप्रसूनौ-विरहाsश्रुयुक्तनयनकमलव्याजमिलितदानोदकमिश्रकुसुमो, रतितत्पतिभ्यां = रतिकामाभ्यां, निवेद्यपूपौ किम् = अर्पणीयाऽपूपौ किम् ? // 61 / / / अनुवादः-ब्रह्माजीके ऐसे शिल्परूप दमयन्तीके दोनों काम विरहके कारण आँसूसे युक्त नेत्रकमलोंके छलसे मिलित दानके जलसे मिश्रित दोनों फूलोंसे युक्त रति और उनके पति कामदेवको समर्पणके योग्य मालपुए हैं क्या ? / / 61 / / टिप्पणी-ईदृक् = इदम् + दृश् + क्विन् + सु / विधिशिल्पं = विधेः शिल्पम् (प० त० ) / वियोगबाष्पाञ्चितेत्यादिः = वियोगेन बाष्पाः (अश्रूणि), (तृ० त०) तैः अञ्चिते (तृ० त०)। नेत्रे पद्मे इव नेत्रपद्मे (उपमित०) / वियोगवाष्पाऽश्चिते च ते नेत्रपद्मे (क० धा०) / तयोः छद्म ( प० त०.), तेन मिलिते ( तृत० ) / पयश्च प्रसूनं च पयःप्रसूने ( द्वन्द्व ) / उत्सर्गाय पयःप्रमूने ( बहु. ) / रतितत्पतिभ्यां = तस्याः पतिः (ष० त०) / रतिश्च तत्पतिश्च रतितत्पती, ताभ्यां ( द्वन्द्वः ), संप्रदानमें चतुर्थी / निवेद्यधूपौ-निवेद्यौ च तौ पूपौ ( क धा० ), "पूपोऽपूप: पिष्टक: स्यात्" इत्यमरः / वियोगके कारण आँसुसे युक्त दमयन्तीके नेत्र मानो रति और कामदेवकी पूजाके लिए जल और कमलके फूल हैं और ब्रह्माजीके शिल्पभूत उनके दोनों कान रति और कामदेव. को समर्पण करनेके लिए ( नैवेद्य) मालपुए हैं इस प्रकार इस पद्य में आह्नति और उत्प्रेक्षा अलङ्कारोंसे दमयन्तीके नेत्र कर्णपर्यन्त विस्तृत हैं ऐसी वस्तुध्वनि है // 6 // इहाऽविशद्येन पयाऽतिवक्र: शास्त्रौघनिष्यन्दसुधाप्रवाहः / मोऽस्याः श्रवःपत्त्रयुगे प्रणाली रेखेव धावत्यभिकर्णकूपम् / / 62 //