________________ 126 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् मेरे वनको व्यर्थ बना दिया। अथवा उपेन्द्रने जैमिनि मुनिका रूप लेकर विश्वरूप सूत्रोंकी रचना करके देवताओंके विग्रह( शरीर को सहन न कर "वजहस्तः पुरन्दरः" इत्यादि वाक्यका खण्डन कर मेरे वजको व्यथं बना डाला। टिप्पणी-विश्वरूपकलनात्-विश्वेषां रूपाणि (प० त० ), तेषां कलनं, तस्मात् (10 त०)। "सर्व विष्णुमयं जगत्" इस ब्रह्माण्डपुराणके वाक्यके अनुसार विश्वरूपको धारण करनेसे। विष्णुके जैमिनि मुनिका रूप लेनेके पक्षमें, विश्वरूप सूत्रोंकी रचना करनेसे / जैमिनिमुनित्वं जैमिनिश्चाऽसौ मुनिः (क० धा० ), तस्य भावः, जैमिनिमुनि+त्व / उदीये=उद्+ इण + लिट् ( कर्तामें )+ / उपपन्नम् =उप+पद्+क्त+सु / मखभुजांमखं भजन्तीति मखभुजः, तेषाम्, मख+भुज्+विप् + माम् ( उपपद०)। विग्रहं= "विग्रहो युधि विस्तारे प्रविभागशरीरयोः" इति हैमः। असहिष्णुःन सहिष्णु ( नन्)। मदनिमम अशनिः, ताम् (प० त०)। व्यर्थतांविगतोऽर्थो यस्याः सा व्यर्था (बहु०), तस्या भावस्तत्ता, ताम्, व्य+तल+ टाप् +अम् / निनाय=णी +लिट् + तिप् ( णल् ) / उपेन्द्र ( विष्णु ) ने देवताओंके विग्रह( युद्ध )को सहन न कर अपने सुदर्शन चक्रसे दैत्योंका संहार कर मेरे अस्त्र वनको व्यर्थ बना डाला, यह प्रकृत है। उपेन्द्र विश्वरूप धारण करनेसे जैमिनि मुनि भी हुए, जैमिनिने विश्वरूप सूत्रोंकी रचना कर "मन्त्र ही देवता है" ऐसा प्रतिपादन कर "वजहस्तः पुरन्दरः" इत्यादि वाक्योंका खण्डन करके मेरे वज्रको व्यर्थ बना दिया, यह अप्रकृत अर्थ है। इस प्रकारसे यह श्लेष अलङ्कार है / / 39 // ईशाति मुनये विनयाऽग्धिस्तस्थियान्स वचनान्युपहत्य / प्रांशुनिःश्वसितपृष्ठचरी वार नारवस्य निरियाय निरोजाः // 4 // अन्वयः-विनयाऽन्धिः मुनय ईदृशानि वचनानि उपहृत्य तस्थिवान् / ( अथ ) नारदस्य प्रांशुनिःश्वसितपृष्ठचरी निरोजा वाक् निरियाय / . व्याल्या-विनयाऽब्धिः=नम्रतासमुद्रः, इन्द्र इति भावः / मुनये=नारवाय, ईदृशानिएतादृशानि, युद्धाशारहितानीति भावः / वचनानिवासि, उपहृत्य उपहारीकृत्य, समर्षेति भावः / तस्थिवान् =तूष्णीं स्थितः / अथ नारदस्य = देवर्षेः, प्रांशुनिःश्वसितपृष्ठचरी = दीर्घनिःश्वासपश्चाद्गामिनी,