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________________ 108 . नैषधीयचरितं महाकाव्यम् व्रजन्त्याः= अनुगच्छन्त्याः, तस्याः=भैम्याः, दृशः = दृष्टेः, तद्बाष्पवारि= तन्नयनजलं, चिरात् =बहुकालं यावत्, न अवधिर्बभूवन सीमारूपं बभूव, "ओदकान्तमनुवजेत्" इति शास्त्रात् अग्रे गन्तुं न ददौ इति भावः / तत् = तस्मात्कारणात्, अनेन=हंसेन, पार्वे अपि- समीपे अपि, विप्रचकृषे विप्रकृष्टेन बभूवे / चित्तवृत्तेस्तु = मनोवृत्तेस्तु, आरात् अपि =दूरे अपि, न व्यवदधे =व्यवहितेन न बभूवे // 131 // ___अनुवाद-आकाशमें बन्धु हंसका दृष्टिसे अनुगमन करनेवाली दमयन्तीके नेत्रोंके जल बहुत समयतक अवधिभूत नहीं हुए। इस कारणसे दमयन्तीके नेत्रोंसे निकटमें भी हंस दूर हुआ और दूर होनेपर भी व्यवहित नहीं हुआ // 131 // टिप्पणी-अनुव्रजन्त्याः =अनु+व+लट् (शतृ ) +ङीप् + ङस् / तद्बाष्पवारितस्या बाष्पम् (10 त०), तस्य वारि (प० त०)। आकाशमें अपने बन्धुको देखनेवाली दमयन्तीकी आँखोंसे वियोगके दुःखसे उत्पन्न. आंसू बहुत समयतक उनकी दृष्टिके सीमाभूत नहीं हुए अर्थात् अपने बन्धुका कुछ दूर तक अनुगमनमें “ओदकान्तमनुव्रजेत्" अर्थात् जलाशयतक अनुगमन करे, ऐसी शास्त्राज्ञा है / दमयन्तीकी आँखोंमें आंसू आ जानेसे वह हंसका अनुगमन न कर सकी, यह अभिप्राय है / विप्रचकृष-वि+++लिट् ( भावमें ) + त / चित्तवृत्तेः=चित्तस्य वृत्तिः, तस्याः ( ष० त० ) / आरात्= "आराद् दूरसमीपयोः" इत्यमरः। व्यवदधे वि+अव+धा+लिट (भावमें)+ त / हंसके जानेपर दमयन्तीकी आँखोंमें आंसू आ जानेसे हंस निकट होनेपर भी ओझल हुआ परन्तु दूर होनेपर भी चित्तवृत्तिसे ओझल नहीं हुआ, यह तात्पर्य है / इस पद्यमें निकटस्थकी दूरता और दूरस्थकी निकटस्थताका वर्णन होनेसे विरोधाभास अलङ्कार है / / 131 // अस्तित्वं कार्यसिधेः स्फुटमय कथयन्पक्षयोः कम्पभेद. - राज्यात वृत्तमेतनिषधनरपतो सर्वमेकः प्रतस्थे / कान्तारे निर्गताऽसि प्रियसखि ! पदवी विस्मृता कि नु मुग्धे ! मा रोदीरेहि यामेत्युपहतवचसो निन्युरन्यां वयस्याः॥ 132 // अन्वयः -अथ एकः पक्षयोः कल्पभेदैः कार्यसिद्धेः अस्तित्वं स्फुटं कथयन् एतत् सर्व वृत्तं निषधनरपती आख्यातुं प्रतस्थे / अन्यां वयस्याः "हे प्रियसखि ! हे मुग्धे ! कान्तारे निर्गता असि, पदवी विस्मृता किं नु ? मा रोदीः। एहि यामः" इति उपहृतवचसः ( सत्यः) (एनाम् ) निन्युः // 132 //
SR No.032779
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year
Total Pages1098
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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