________________ . 12 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् - टिप्पणी-कृते = कृ+क्तः, कृतम् = "युगपर्याप्तयोः कृतम्" इत्यमरः / सुकृते ="स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः।" इत्यमरः। "तपः परं कृतयुगे, त्रेतायां ज्ञानमुच्यते / द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेक कलो युगे // " इस उक्ति के अनुसार सत्ययुगमें तपस्याकी, त्रेता में ज्ञानकी, द्वाप में यज्ञकी और कलियुगमें दानकी प्रधानता है, परन्तु महाराज नलने इन चारों चरणोंसे धर्मको स्थिर किया, यह बात इस पद्यसे सूचित होती है। शास्त्रोंमें लिखा गया हैसत्ययुग में पूर्वोक्त तपस्या आदि चारों विषयोंकी उपस्थितिसे धर्म चतुष्पाद होता है। परन्तु अन्य युगमें धर्मके एक-एक चरणोंकी क्रमसे न्यूनता होती है, जैसे कि त्रेतामें तपस्याकी न्यूनतासे ज्ञान, यज्ञ और दानकी स्थितिसे धर्म त्रिपात होता है / द्वापरमें तपस्या और ज्ञानकी न्यूनतासे यज्ञ और दानकी स्थितिसे धर्म द्विपात होता है / इसी तरह कलियुग में तपस्या, ज्ञान और यज्ञकी न्यूनतासे और एकमात्र दानकी स्थितिसे धर्म एकपात हो जाता है। नलने अपने पराक्रमसे तपस्या आदि चारों चरणोंसे धर्मको स्थिर रक्खा था। स्थिरीकृते = अस्थिर स्थिरं यथा संपद्यते तथा कृतं स्थिरीकृतम्, तस्मिन्, “कुम्वस्तियोगे संपद्य कर्तरि च्विः" इससे च्चि प्रत्यय स्थिर+वि+कृ+क्त+ङि। "च्चो च" इससे अ वर्णका ई भाव होता है / प्रपेदिरे -प्र-उपसर्गपर्वक “पद" धातुसे लिट् +झ / अधर्मः=न धर्मः ( नन् त०) / यहाँपर नङ् विरोध अर्थमें है, नन्के छः अर्थ हैं। जैसे कि तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता / - -अप्राशस्त्यं विरोधश्च नर्थाः षट् प्रकीर्तिताः / / " अर्थात् नरके सादृश्य, अभाव, भिन्नता, अल्पता, अप्रशस्त्रता और विरोध ये छः अर्थ होते हैं / अघिकनिष्ठया अङ्ग्रेः कनिष्ठा, तया (ष० त० ) / “पादः पज्रिश्चरणोऽस्त्रियाम् / " इत्यमरः / स्पृशन् = स्पृश + लट् ( शतृ०) तपस्वितां तपः अस्याऽस्तीति तपस्वी, तपस् शब्दसे "तपःसहस्राभ्यां विनीनी" इस सूत्रसे विनि प्रत्यय / तपस्विनो भावः तपस्विता, ताम्, तपस्विन + तल +टाप् / तपस्वी पदके दो अर्थ हैं, "तपस्वी शोचनीयः स्यात्" इस कोशके अनुसार शोचनीय अर्थात् दीन पुरुष और "मूनिदीनी तपस्विनौ" इस विश्वकोशके अनुसार तपस्या करनेवाला मुनि भी। दधौ = धा+लिट् + तिप् / यहाँपर "अधर्मोऽपि तपस्वितां दधौ, किमुत अन्यः" अर्थात् अधर्म भी तपस्वी हो गया, अन्यका क्या