________________ प्रथमः सर्गः पवित्रं = विशुद्ध म्, आतनुते = करोति / सा=नलकथा, आविलाम् अपि, कलुषाम् अपि, सदोषाम् अपीति भावः, स्वसे विनीम् एव = आत्मवर्णनपराम् एव / मगिरं = मद्वाचं, नंषधवर्णनरूपामिति भावः / कथं = केन प्रकारेण, न पवित्र. यिष्यति = पवित्रां न करिष्यति ? पवित्रां करिष्यत्येवेति भावः // 3 // अनुवाव:-इस कलियुगमें जिन महाराज नलकी कथा जलसे प्रक्षालनके समान लोकको पवित्र कर देती है, वह ( कथा ) कलुष ( दोषयुक्त ) होनेपर भी अपनी ही सेवा करनेवाली मेरी वाणीको क्यों पवित्र नहीं करेगी? // 3 // टिप्पणी-अत्र अस्मिन् इति, इदम् +त्रल् / यत्कथा = यस्य कथा (10 त०), स्मृता = स्मृ+क्त+टाप् ( कर्ममें ) / रसक्षालनया = रसेन क्षालना, तया ( तृ० त० ) / "शृङ्गारादौ द्रवे वीर्य देहधात्वम्बुपारदे / " इति विश्वः / णिजन्त "क्षल शौचकर्मणि" धातुसे "ण्यासश्रन्थो युच्" इससे युच् (अन) होकर टाप् प्रत्ययसे "क्षालना" शब्द बनता है / आतनुते आङ्-उपसर्गक "तनुविस्तारे" धातुसे लट् +त / आविलाम् = "कलुषोऽनच्छ आविलः" इत्यमरः / स्वसेविनी स्वं सेवते तच्छीला, ताम् / स्व+सेव+णिनि+ङीप् ( उपपद०)। यहांपर जैसे जलसे प्रक्षालन करनेसे वस्तुकी पवित्रता होती है उसी तरह नलकी कथाका स्मरण करनेसे जगतकी पवित्रता होती है ऐसा अर्थ अभिव्यक्त होता है। कहा भी गया है "कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलम्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // " अर्थात् कर्कोटक नाग, दमयन्ती, नल और राजर्षि ऋतुपर्ण इनका कीर्तन करनेसे कलिका नाश होता है / और भी __"पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः / पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दनः // " - अर्थात् राजा नल, युधिष्ठिर, वैदेही (सीताजी ) और जनार्दन ( भगवान् कृष्ण ) ये सब पुण्यश्लोक अर्थात् पुण्यकीर्तिवाले हैं, इनका स्मरण करनेसे पुण्य. लाभ होता है यह तात्पय है / यहाँपर उत्प्रेक्षा अलंकार और जिन नलकी कथा स्मरण करनेपर भी शुद्ध करती है, सेवा ( वर्णन ) करनेसे क्या कहना है ! इस प्रकार कमुतिक न्यायसे अर्थापत्ति अलंकार है। उसका सोदाहरण लक्षण है "अर्थापत्तिः स्वयं सिध्येत्पदाऽर्थान्तरवर्णनम् / स जितस्त्वन्मुखेनेन्दुः का वार्ता सरसोरुहाम् // ' ( चन्द्रालोक )