________________ नषधीयचरित महाकाव्यम् अक्षिणी नेत्रे, वदनाऽलङ्कृतिमात्र,=मुखाऽलङ्कारमात्रं, न तु दूरसूक्ष्मपदार्थदर्शनोपयोगिनी इति भावः // 55 // अनुवाद-प्राप्तभूत मित्रसे और अपने अन्तःकरणसे समस्त पदार्थको असन्दिग्ध रूपसे देखनेवाले विवेकियोंके लिए समीपमें भी सूक्ष्म पदार्थको न देखने वाले नेत्र मुखमण्डलके अलङ्कारमात्र हैं // 55 // टिप्पणी-सुहृदाशोभनं हृदयं यस्य स सुहृत (बहु०), तेन / "सुहृदुहूं दो मित्राऽमित्रयोः" इस सूत्रसे हृदय के स्थान में हृद आदेश, “अथ मित्रं सखा सुहृत्" इत्यमरः / स्वहृदा-स्वस्य हृत् स्वहृत्, तेन (ष० त०), "स्वान्तं हुन्मानसं मनः" इत्यमरः / अनाविलंन आविलं तद्यथा तथा ( नन् त०)। यह क्रियाविशेषण है। "कलुषोऽनच्छ आविल:" इत्यमरः। पश्यतां पश्यन्तीति पश्यन्तः, तेषाम्, दृश् + लट् ( शतृ )+आम् / विदुषां विद्+लट ( शतृ)+वसु+आम् / 'सन्देह और विपर्यासके बिना शब्द और अनुमान आदि प्रमाणोंसे पदार्थोंको देखने ( जानने ) वालोंके' यह तात्पर्य है / सविधे"सदेशाऽभ्याससविधसमर्यादसवेशवत्" इत्यमरः / न सूक्ष्मसाक्षिणी साक्षात् द्रष्टुणी साक्षिणी, साक्षात् शब्दसे "साक्षाद् द्रष्टरि सज्ञायाम्" इस सूत्रसे निपातन / सूक्ष्माणां साक्षिणी (प० त०), न सूक्ष्मसाक्षिणी ( सुप्सुपा० ) / अक्षिणी="ईक्षणं चक्षुरक्षिणी" इत्यमरः / वदनाऽलकृतिमात्रं वदनस्य अलङ्कृतिः (10 त० ), सा एव ( मयूरव्यंसकादिसमास ) / "मात्र कात्स्न्ये - ऽवधारणे" इत्यमरः / यहाँपर 'मात्र' शब्द अवधारण अर्थमें है। समीपमें भी नेत्र में स्थित कज्जल और रक्तत्वको न देखनेवाला नेत्र तो केवल मुखका अलङ्कार है यह तात्पर्य है। ___ इस पद्यमें नेत्रों में वदनाऽलङ्कृतिमात्रत्वका सम्बन्ध न होनेपर भी सम्बन्धकी उक्ति होनेसे अतिशयोक्ति अलङ्कार है // 55 // अमितं मधु तत्कथा मम श्रवणप्राधुणिकीकृता जनः / मवनाऽनलबोधनेऽभवत्खग! धाग्या धिगधर्यधारिणः // 56 // अन्वयः-हे खग ! जनैः मम श्रवणप्राघुणिकीकृता अमितं मधु तत्कथा अधैर्यधारिणो मम मदनाऽनलबोधने धाय्या अभवत् / धिक् ! // 56 // व्याख्या हे खग हे विहग, हंस इत्यर्थः / जनैः= लोकः, ममनलस्य, श्रवणप्राघुणिकीकृता-कर्णाऽतिथीकृता, श्रवणविषयीकृतेति भावः / अमितम्अपरिमितं, मधु-क्षीद्रम्, अपरिमितमधुसमाना अतिमधुरेति भावः / तत्कथा=