________________ द्वितीयः सर्गः न, प्रत्युत मादृशे अनवलम्बे ( अवलम्बरहिते ) अपि पक्षपातिता पक्षवर्तिता न किमु ? अस्त्येवेति भावः // 52 // ____ अनुवाद-हे हंस ! तुम्हारी केवल मूर्ति ही सुवर्णमयी नहीं है, वाणी भी सुवर्णमयी (सुन्दर अक्षरोंवाली) है / उसी प्रकार अवलम्बरहित मार्ग (आकाश) में मात्र तुम्हारी पक्षपातिता (पक्षपतनशीलता) नहीं है, प्रत्युत अवलम्ब ( आधार ) से रहित मेरे जैसे व्यक्तिमें भी वह पक्षपातिता ( पक्षमें रहनेका गुण ) नहीं है क्या ? अर्थात् है ही / / 52 // टिप्पणी-ननु="प्रश्नाऽवधारणाऽनुज्ञाऽनुनयाऽऽमन्त्रणे ननु" इत्यमरः / यहाँपर "ननु" पद आमन्त्रण अर्थ में है / तावकी-तव इयम्, 'युष्मद' शब्दसे 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खन् च' इस सूत्र में चकार पाठके सामर्थ्यसे अण् प्रत्यय होकर 'तवकममकावेकवचने' इस सूत्रसे तवक आदेश, आदिवृद्धि और स्त्रीत्वविवक्षामें डीप् प्रत्यय / सुवर्णमयी सुवर्णस्य विकारः, सुवर्ण+मयट् + डीप् / यह 'तनु' के पक्षमें व्युत्पत्ति है। वाक्पक्षमें शोभना वर्णाः सुवर्णाः, (गति०) / प्रचुराः सुवर्णा यस्यां सा सुवर्णमयी, सुवर्ण शब्दसे 'तत्प्रकृतवचने मयट्' इससे प्रचुर अर्थमें मयट् +ङीप् / प्रचुर सुन्दर वर्णोवाली तुम्हारी वाक् ( वाणी ) है, तस्मिन् ( नन् बहु० ) / अनवलम्बे पथि=इसका तात्पर्य आधाररहित मार्ग अर्थात् आकाशमें ऐसा होता है। पक्षपातिता=पक्षाभ्यां पततीति तच्छील: पक्षपाती, पक्ष+पत्+णिनि+सु, पक्षपातिनो भावः, पक्षपातिन्+ तल् +टाप् / आधाररहित मार्ग आकाशमें मात्र पक्षपातिता=पंखोंसे चलने ( उड़ने ) का भाव नहीं है, अनवलम्बे मादृशेऽपि=अवलम्बसे रहित मेरे ऐसेमें भी पक्षपातितापक्षे पततीति तच्छील: पक्षपाती, तस्य भावः / पक्षमें पड़नेका भाव / अर्थात् मेरे ऐसे आधाररहितमें भी पक्षपातीका भाव / इस पचमें "सुवर्णमयी" और "पक्षपातिता" इन दोनों पदोंमें दो पदश्लेषोंकी निरपेक्षतासे स्थिति होनेसे संसृष्टि अलङ्कार है // 52 // भृशतापभृता मया भवान् मरुवासादि तुषारसारवान् / धनिनामितरः सतां पुनगुणवत्सनिधिरेव सन्निधिः // 53 // .. अन्धयः-( हे हंस ! ) भृशतापभृता मया भवान् तुषारसारवान् मरुत् बासादि। धनिनाम् इतरः सन्निधिः पुनः सतां गुणवत्सन्निधिः एव सनिधिः / / 53 //