________________ द्वितीयः सर्गः अनुवाद-बहुत पहले देखी गयी वह सुन्दरी ( दमयन्ती ) आज आपके सौन्दर्यकी सीमासे उबुद्ध संस्कारवाले मेरे स्मरणमार्ग में आरूढ हो गयी // 43 // टिप्पणी-अवलोकिता - अव+लोक +क्त ( कर्ममें ) +टाप् / शुचि. स्मिता=शुचि स्मितं यस्याः सा ( बहु० ) / रूपसीमया = रूपस्य सीमा, तया (10 त०)। सीमन् शब्दसे 'डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्' इस सूत्रसे विकल्पसे डाप और टा विभक्ति / डाप्के अभावमें रूपसीम्ना। कृतसंस्कारविबोधनस्य% संस्कारस्य विबोधनम् (ष० त०) / संस्कारके तीन भेद होते हैं-वेग, भावना और स्थितिस्थापक / यहाँपर 'भावना' नामक संस्कार उद्दिष्ट है। भावनाका लक्षण है-"अनुभवजन्यः, स्मृतिहेतुर्गुणविशेषः" अनुभवसे उत्पन्न स्मरणके कारणभूत गुणविशेषको 'भावना' कहते हैं / यह आत्माका विशेष गुण है। कृतं संस्कारविबोधनं यस्य सः, तस्य ( बहु० ) / स्मृतिम् =स्मरणं स्मृतिः, वाम्, स्मृ+क्तिन् / बुद्धिके दो भेद होते हैं-अनुभव और स्मृति / स्मृतिका लक्षण है-'संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः' अर्थात् भावना नामक संस्कारमात्रसे उत्पन्न ज्ञानको 'स्मृति' कहते हैं / आरूढवती = आङ् + रुह + क्तवतु+डीप् / सदशवस्तुका दर्शन दूसरी वस्तुका स्मारक होता है, अतिशय सुन्दर आपको देखने से अत्यन्त सुन्दरी दमयन्तीका मुझे स्मरण हुआ, यह तात्पर्य है। इस पद्यमें स्मरण अलङ्कार है "सदृशाऽनुभवाद्वस्तुस्मृतिः स्मरणमुच्यते // " सा० 10 10-40 // . 'बिना सादृश्यके भी वस्तुके स्मरणसे राघवानन्दके मतके अनुसार यह अलवार है॥४३॥ स्वयि वीर ! विराजते परं दमयन्तीकिलकिश्चितं किल।। तरुणीस्तन एव दीप्यते मणिहाराबलिरामगीयकम् // 4 // - अन्वयः-हे वीर ! दमयन्तीकिलकिञ्चितं त्वयि परं विराजते किल / मणिहारावलिरामणीयकं तरुणीस्तन एव दीप्यते // 44 // व्याख्या-हे वीर हे शूर !, दमयन्तीकिलकिञ्चितंदमयन्ती. भृङ्गारचेष्टाविशेषः, त्वयि भवति, परम्-एव, विराजते शोभते, किल= बाल / उक्तमर्थ दृष्टान्तेन समर्थयते-तरुणीति / / मणिहारावलिरामणीयक= मुक्ताहारपक्तिसौन्दर्य, तरुणीस्तन एव-युवतिपयोधर एव, दीप्यते= शोभते // 4 //