________________ मैषधीयचरितं महाकाव्यम् याचना के प्राप्त पदार्थको लेना चाहिए ऐसा महर्षि याज्ञवल्क्यने कहा है / अयाचित वृत्तिको भगवान् ननुने भी “अमृतं स्यादयाचितम्" (45) अमृत कहा है / "प्रत्याख्येयं न वारि च" ऐसा भी शास्त्रका वचन है, अर्थात् याचनाके बिना मिले हुए जलका भी प्रत्याख्यान नहीं करना चाहिए / करकल्पजनान्तरात् = ईषत् असमाप्तः करः करकल्पं हस्तसदृशमित्यर्थः / 'कर' शब्दसे "ईषदसमाप्ती कल्पब्देश्यदेशीयरः" इस सूत्रसे कल्पप् प्रत्यय / 'करकल्प' शब्दका करसदृश ऐसा अर्थ होता है / अन्यो सनो जनान्तरम् (मयूरव्यंसकादिसमास ) / करकल्पं च तत् जनान्तरं तस्मात् (क० धा० ) / शुचितः- शुचेः इति शुचितः, "शुचि" शब्दसे "अपादाने चाहीयरुहोः" इस सूत्रसे तसि प्रत्यय / यह "विधेः" इस पदका विशेषण है / प्रापि=प्र-उपसर्गपूर्वक "आप्ल व्याप्ती" धातुसे कममें लुङ / इस पद्यमें हितपरिहारकी अयुक्तताके प्रति उत्तरार्धस्थित वाक्यकी हेतुतासे वाक्याऽर्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार है // 12 // 'पतगेन मया जगत्पतेरुपकृत्यं तव कि प्रभूयते / इति वेनि न त त्यजन्ति मां तदपि प्रत्युपकत मर्तयः // 13 // अन्वयः-पतगेन मया जगत्पतेः तव उपकृत्य किं प्रभूयते ? इति वेनि, तदपि अर्तयः तु मां प्रत्युपकर्तुं न त्यजन्ति // 13 // व्याख्या-हंसः स्वगर्व परिहरति-पतगेनेति / पतगेन पक्षिणा, मया हंसेन, तुच्छजन्तुना इति भावः / जगत्पतेः सार्वभौमस्य, तव=भवतः, उपकृत्य-उपकाराय, कि प्रभूयते कि क्षम्यते ? समर्थन न भूयत इति भावः। इति=एवं, वेधि=जानामि, तदपि तथाऽपि, अर्तयस्तु प्रत्युपकराऽर्थमुत्कण्ठारूपाः पीडास्तु , मां-पतगं, प्रत्युपकतुं प्रयुपकारं कर्तुं, न त्यजन्ति न मुञ्चन्ति, प्रत्युपकाराय प्रेरयन्तीत्यर्थः / पतगोऽप्यहं दयालोस्ते महोपकारं करवाणीति भावः // 13 // अनुवाद-"अदना पक्षी मैं जगत्पति आपके उपकारके लिए कैसे समर्थ होऊँगा" यह जानता हूँ। तो भी प्रत्युपकारके लिए उत्कण्ठारूप पीडाएँ तो मुझे आपके उपकारका बदला देने के लिए नहीं छोड़ती हैं // 13 // टिप्पणी-जगत्पतेः जगतः पतिः, तस्य ( 10 त०), उपकृत्यै उपकरणम् उपकृतिः, तस्य, उप-उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातुसे "स्त्रियां क्तिन्” इस सूत्रसे क्तिन्, तादीमें चतुर्थी / प्रभूयते=प्र+भू+लट् (भावमें )+त / वेमि=