________________ प्रथमः सर्गः 95 इससे ड प्रत्यय / सखेदं =खेदेन सहित यथा तथा ( तुल्ययोग बहु०) / ऐक्षिष्ट= ईक्ष+ लुङ + त / इस पद्य में "शपत इव" यहाँपर उत्प्रेक्षा अलंकार है और "द्विज" पदसे ब्राह्मण अर्थका भी बोध होनेसे उपमा अलखार व्यङ्गय होता है अतः ( उत्प्रेक्षा / अलंकारसे अलंकार ध्वनि है / / 90 // अलिलजा कुडमलमुच्चशेखरं निपीय चाम्पेयमधारया वृशा / स धूमकेतु विपदे वियोगिनामुदीतमातङ्कितवान शङ्कत // 11 // अन्वयः-अलिस्रजा उच्चशेखरं चाम्पेयं कुडमलम् अधीरया दृशा निपीय आदितवान् स वियोगिनां विपदे उदीत धूमकेतुम् शङ्कत् // 91 / / व्याख्या--अलिस्रजा- भ्रमरपड क्त्या, उच्च शेख रम् = उन्नतशिरोभूषणं, भ्रमरमलिनाऽङ्गमिति भावः / चाम्पेयं = चम्पकविकार, कुडमलं = मुकुलम्, अधीरया = धैर्यरहितया दृशा = दृष्टया, निपीय = सादरं दृष्ट्वा, आतङ्कितवान् = भीतः किञ्चिदनिष्टमुत्प्रेक्षितवानिति भावः / सः = नल:, वियोगिनां = विरहिणां, विपदे = विनाश सूचनाय, उदी 1म् =उत्थितं, धूमकेतुम् = अशुभसूचक तारापुञ्जम, अशङ्कत शङ्कितवान् // 91 / / अनुवादः-भ्रमरोंकी पङक्तियोंसे ऊंचे शिरोभूषणवाली चम्पाकी कलीकी अधीर दृष्टि से देखकर अनि टकी आशङ्का करनेवाले नलने उसमें वियोगियोंके विनाशके लिए उठे हुए धूमकेतु होने की शङ्का की // 61 // टिप्पणी अलिस्रजा = अलीनां सक् तया ( ष० त० ) / उच्चशेखरम् = उच्चः शेखरो यस्य, तम् ( बहु० ), चाम्पेयं = चम्पाया अपत्यं पुमान् चाम्पेय:, तम् “स्त्रीभ्यो ढक्" इससे ढक् / एय ) प्रत्यय और "किति च" इससे आदिवृद्धि / यहाँपर मल्लिनाथजीने "न षट्पदो गन्धफलीमजिघ्रत्" ऐसी उक्ति होनेसे भौरोंमें चम्पाकी कली कैसे उन्नत होगी ऐसी अशङ्का कर भौंरा उसे छूकर मर जाता है, इतनेसे ऐसी प्रसिद्धि हो गयी, अथवा चाम्पेय कहनेसे यहांपर नागकेसर लेना चाहिए इस प्रकार उसका परिहार किया है / "अथ चाम्पेयश्चम्पको हेमपुष्पकः" इति “एतस्य कलिका गन्धफली स्यात्" इति "चाम्पयः केशरो नाग केसरः काञ्चनाह्वयः।" इति चाऽमरः / अधीरया = न धीरा, तया / नन ) / निपीय = नि + पा+क्त्वा ल्यप् ) / आतङ्कितवान् आङ+ तकि + क्तवतु + सु / विपदे = तादर्थ्य चतुर्थी / धूमकेतु = धूमधानः केतुः, तम् / मध्यमपदलापी स० ) / "अग्न्युत्पाती धूमकेतुः" इत्यमरः / अशङ्कतशकि+लङ्+त / इस पद्यमे उत्प्रेक्षा अलंकार है // 91 / /