________________ शमः सर्गः स्वोक्तिविरुद्धविवरणं येन सः (बहुव्री० ) स्थानी इन्द्रः तस्य भावम् स्थानिवद्भावम्, परस्त्यनुरागरूपम् / नलेन सता तद्वत् साधु स्वभावेन भाव्यम् तथा तु न कृतम् इन्द्ररूपस्थानिसदृशमेव कृतम् / इदं देवविरुद्धाचरणमाश्चर्यम् / अन्यच्च-नानल्रूप अलकार्यस्य हेतो अनल्विधाविति दुष्टरूपानि वद्भावं कथं व्यधत्त यतः स: स्वयं माहेन्द्रव्याकरणकर्ता पण्डितः। ___ अन्यच्च तथा संस्कृत 'सः' इति शब्दः / 'त्यदादीनामः' इति तादेशमकारं स्थानिवत्वेन हलं कृत्वा हल्ङ्यादिना सुलोपरूपं दुष्टं स्थानिवद्भावं व्यधत्तेत्यार्षम् / भाव:कृतककृत नलं स्वं तन्नलादेश भूयं, व्यधित नृप सुतार्थे स स्वयं नानलोऽपि / अनलि विधिविधाने स्थानिवद्भावकार्य हकृत कृतविरुद्ध व्याकृतेः पण्डितोऽपि / / अपलपति निजोक्ति स्वः सदा माननीये घृणित जनसमाने लिप्सिते तुच्छभोगे / स्मरशरविधुराणां मानवानामकार्य नहि किमपि विजाने चित्रमेतद्विचित्रम् // . अनुवादः-इस इन्द्र ने दमयन्ती लाभ रूप कार्य के लिये अपने-आप को नल रूप आदेश बनाकर ( नानल ) स्वयं अनल होते हुये भी नल की शंका के बाद मनुष्य के समान पूर्व कथन के विरुद्ध बताते हुये मिथ्याभाषी होकर (स्थानी) इन्द्र के समान भाव को परस्त्रीविषयक भाव को धारण किया यह आश्चर्य है। नल का रूप धारण करने पर उसके समान साधु स्वभाव होना चाहिये किन्तु इन्द्र ने अपनी स्वाभाविक दुष्टता को नहीं छोड़ा यह आश्चर्य है / अथवा ( नानल ) अल होते हुये भी दमयन्तीलाभरूप कार्य के लिये 'अनल विधौ' इससे निषिद्ध स्थानिवद्भाव को नल रूप आदेश होकर दूषित स्थनिवद्धाव को किया यह आश्चर्य है। क्योंकि वे माहेन्द्र व्याकरण के कर्ता स्वयं महावैयाकरण हैं उनको ऐसा दूषित स्थानिवद्भाव नहीं करना चाहिये। अथवा इसी प्रकार संस्कृत 'स' इस शब्द में भी 'त्यदादीनामः' इस सूत्र से किये त के स्थान में अरूप आदेश को स्थानिवद्भाव से हल मानकर हल्ङ्यादिलोप रूप अल् विधि में निषिद्ध स्थानिवद्भाव को करना आश्चर्य है / / 136 / / इयमियमधिरथ्यं याति नेपथ्यमञ्जु विशति विशति वेदीमुवंशी सेयमुळः / इति जनजनितेः सानन्दनाविजघ्ने नलहृदि परभेमोवर्णनाकर्णनाप्तिः // 137 / /