________________ प्रस्तावना. क्रमण न करो, केवल अपराध करतेही रुको नहीं पर जिस से अपराध जरूर होते हैं ऐसी तृष्णाओं को छोड़ो और सर्व अपराधों का मूलरूप जीवन की तृष्णा में से निवृत्त हो जाओ। इस प्रकार करने से अपराध होही नहीं सकेंगे, ऐसा भी बुद्ध भगवान बताते हैं। जिस नियम पर चलकर देवता इत्यादि के लिए पवित्र रखी हुई वस्तुओं को भ्रष्ट नहीं करने की आज्ञा की गई है, जिसके अनुसार ' तुम मत करो' ऐसी मनाही करने में ही नीतिवचनों की मर्यादा रखी गई है और जिसके लिए देवादि का भय प्रधान रखकर ही कई धर्मों के सिद्धान्त रचे गए हैं ऐसे धमों और नीति के निषेधात्मक नियमों की पराकाष्ठा रूप बुद्ध भगवान के ऊपर दर्शाए हुए सिद्धान्त हैं, और यह तार्किक दृष्टि के परिणाम होने से उनका उल्लेख वारंवार देखने में नहीं आता / इस निषेधात्मक सिद्धान्त को सर्वांश में लगाएं तो निषेधात्मक सिद्धान्तों पर रचित सब धार्मिक और नैतिक संप्रदायों का तार्किक पद्धति से खंडन स्वयमेव हो जाता है। जहां देवताओं को केवल अतिक्रमण का दंड करने के लिए ही स्वीकार किया है वहां अतिक्रमण का निषेध होने से देवता निरुपयोगी होते हैं, और देवताओं का स्वीकार करना व्यर्थ होता है / बुद्ध का ऐसा मत है और बुद्ध स्वरूप देव के रूपमें पूजा जाता है उसका कारण यह नहीं कि वह अतिक्रमण के दंडका देनेवाला होने से उसको देव मानना चाहिए परन्तु ठीक कारण तो यह है कि तार्किक पृथक्करण की पद्धति अनुसार