SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुलनात्मक धर्मविचार. 137 विश्वास न था कि 'यहो वाह याइदिओं का ही देव है और याहूदी ही उसकी प्रजा हैं / ऐसा धर्म संकुचित रहा है और 'अहुर मझद' की तरह -- यहो वाह ' की पूजा सर्वत्र फैल नहीं सकी / अपने देव का नाम यहोवाह रख कर उसकी वह पूजा करते थे उनका धर्म सार्वजनिक धर्म होने का आवश्यक बल प्राप्त नहीं कर सका / जिस देव का अमुक नाम रखा जाता है वह देव अमुक वर्ग का ही देव हो रहता है और दूसरे देवों की तरह उसे माना जाता है इस प्रकार अनेक देववाद को स्वीकार किया जाता है और अनेकेश्वरवाद संपूर्ण रीति से वृद्धि नहीं पासकता। तब यदि हम यहोवाह की पूजा को एकेश्वरवाद का अंश रूप मानें तो उससे प्रथम के पूजा के प्रकार को हमें एकेश्वरवाद के अल्पांश रूप में मानना पड़ेगा / प्रथम समाज तरफ से की जानेवाली पूजा का ऐसा प्रकार था कि उस समय देवकः विशेष नाम नहीं डाला गया था परन्तु उसे फिर . फिनीश्यनों की तरह ' मालिक ' अथवा प्राचीन इजिप्ट की तरह 'पश्चिम का निवासी ' (चेन्टेमेन्टेट) ऐसे सामान्य नामों से बुलाया जाता / जबतक समाज के देवका विशेष नाम नहीं डाला जाता था तबतक वह देव कर सकें ऐसा सब कार्य करने के समर्थ माने जाते थे / यह बात बताने का प्रयोजन इतना ही है कि सब देवों के नाम पीछे से ही डाले गये होने से आरंभ में अनेक देववाद माना जाता होगा वा एकेश्वरवाद माना जाता होगा उसके संबंध में कोई प्रश्न रहता ही नहीं /
SR No.032770
Book TitleTulnatmak Dharma Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyaratna Atmaram
PublisherJaydev Brothers
Publication Year1921
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy