________________ 88 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा जो सत् लक्षणवाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसंयुक्त है अथवा जो गुणपर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ द्रव्य कहते हैं। जैन मत में द्रव्य की परिभाषा अन्य दर्शनों से कुछ भिन्न है। उसमें किसी भी पदार्थ को न तो सर्वथा नित्य ही माना गया है और न सर्वथा अनित्य ही / कारण द्रव्य सर्वथा नित्य है और कार्य द्रव्य सर्वथा अनित्य है यह भी उनका मत नहीं, किन्तु उसके अनुसार जड़-चेतन समग्र सद्रूप पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाले होते हैं। प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है और उसमें यह परिवर्तन प्रतिसमय होता रहता है, जैसे दूध कुछ समय बाद दही रूप में परिणत हो जाता है और फिर दही का मट्ठा बना लिया जाता है। यहाँ यद्यपि दूध से दहीं और दहीं से मट्ठा ये तीन भिन्न-भिन्न अवस्थायें दिखाई देती हैं पर ये तीनों एक गोरस की ही हैं, इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अवस्था भेद के होने पर भी उसका अन्वय पाया जाता है, इसलिए वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप सिद्ध होता है यह प्रत्येक द्रव्य का सामान्य स्वभाव है। द्रव्य को दूसरे शब्दों में गुणपर्याय वाला भी कहा है / तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' / प्रत्येक वस्तु का अपना स्वकीय स्वरूप है / जो भी कोई वस्तु है, यद्यपि वह स्वयं अपनेअपने स्वभाव में स्थित है, किन्तु अपनी-अपनी वस्तु को न छोड़कर रहने वाला स्वभाव ही विवक्षित होकर भेद का कर्ता हो जाता है / पञ्चाध्यायी में गुणों के नामों के बारे में लिखा है - शक्तिलक्ष्म विशेषो धर्मो रूप गुणः स्वभावश्च / प्रकृति, शीलं चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दाः // 1/48 शक्ति, लक्ष्म, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति ये सब एकार्थवाची शब्द हैं अर्थात् ये सब विशेष या गुण के पर्यायवाची नाम हैं / गुण अन्वयी होते हैं और पर्याय व्यतिरेकी / प्रत्येक द्रव्य में कार्य भेद से अनन्त शक्तियों का अनुमान होता है। इन्हीं की गुणसंज्ञा है। ये अन्वयी स्वभाव होकर भी सदैव एक अवस्था में नहीं रहते हैं, किन्तु प्रतिसमय बदलते रहते हैं / इनका बदलना ही पर्याय है / गुण अन्वयी होते हैं, इसका तात्पर्य यह है कि शक्ति का कभी भी नाश नहीं होता / ज्ञान सदा काल ज्ञान बना रहता है, तथापि जो ज्ञान वर्तमान समय में है, वही ज्ञान अगले समय में नहीं रहता / दूसरे समय में वह अन्य प्रकार का हो जाता है। तथापि प्रत्येक गुण अपनी धारा के भीतर रहते हुए ही प्रतिसमय अन्य-अन्य अवस्थाओं को प्राप्त होता है। गुणों की इन अवस्थाओं का नाम ही पर्याय है। इससे इन्हें व्यतिरेकी कहा जाता है / वे प्रतिसमय अन्य-अन्य होती रहती हैं / ये गुण और पर्याय मिलकर ही द्रव्य कहलाते हैं / द्रव्य इनके सिवा स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है - 'तद्भावः परिणामः' अर्थात् धर्मादि द्रव्यों का अपने निज स्वभाव में रहना ही परिणाम है। पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है। ध्रुव अन्वयी या सहभूत तथा क्षणिक व्यतिरेकी या क्रमभावी के भेद से अंश दो प्रकार के होते हैं / प्रवचनसार में लिखा है -