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________________ 82 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा ___ (3) वज्जसिलाथंभादिसु वंजणसण्णिदस्स अवठ्ठाणुवलंभादो वंजणपज्जाओ / अर्थात् वज्रशिला, स्तम्भादि में व्यञ्जन संज्ञा से उत्पन्न हुई पर्याय को व्यञ्जनपर्याय कहते हैं / 22 व्यञ्जनपर्याय स्थूल एवं शब्दगोचर है, तथा अपेक्षाकृत स्थायी भी मानी जाती है। जैसे मिट्टी की पिण्ड, स्थास, कोष, कुशल, घट और कपाल आदि पर्यायें व्यञ्जनपर्यायें हैं। शरीर के आकाररूप से जो आत्मप्रदेशों का अवस्थान है, वह व्यञ्जनपर्याय कहलाती है। और अगुरुलघु गुण की षट्वृद्धि और हानिरूप प्रतिक्षण बदलती हैं, वे अर्थपर्याय होती हैं / व्यञ्जनपर्याय को द्रव्यपर्याय के अंतर्गत माना गया है, जबकि अर्थपर्याय को गुणपर्याय का अपरनाम माना गया है / (ग) 'स्वभावपर्याय' और 'विभावपर्याय' - (1) पज्जयं दुविहं सब्भावं खु विहावं दव्वाणं पज्जयं जिणुद्दिष्टुं / दव्वगुणाण सहावा पज्जायं तह विहावदो णेयं / अर्थात् पर्याय दो प्रकार की होती हैं, स्वभावपर्याय और विभावपर्याय / द्रव्य और गुण दोनों की पर्यायें इन दोनों प्रकार की होती (2) पर्यायास्ते द्वेधा स्वभावविभावपर्यायभेदात् / अर्थात् पर्याय दो प्रकार की है, स्वभावपर्याय और विभावपर्याय / 24 ये दोनों भेद गुणपर्याय के माने गये हैं; जबकि द्रव्यपर्याय के दो भेद समानजातीय और असमानजातीय माने गये हैं / समानजातीय वह है, जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक इत्यादि पर्यायें हैं; तथा असमान जातीय पर्यायों में जीव पुदलात्मक देव एवं मनुष्य आदि पर्यायें ली गई हैं / (घ) 'सहभावीपर्याय' और 'क्रमभावीपर्याय' (1) यः पर्याय स द्विविधः क्रमभावी सहभावी चेति / अर्थात् पर्याय सहभावी और क्रमभावी के भेद से दो प्रकार की मानी गयी हैं / 25 (ङ) 'स्वपर्याय' और 'परपर्याय' (1) केवलिप्रज्ञया तस्या जघन्योऽशंस्तु पर्ययः तदाऽनेन निष्पन्नं सा द्युतिनिजपर्ययाः / क्षयोपशमवैचित्र्यं ज्ञेयवैचित्र्यमेव वा / जीवस्य परपर्यायाः षट्स्थानपतितामी / अर्थात् केवलज्ञान के द्वारा निष्पन्न जो अनन्त अन्तद्युति या अन्तर्तेज है, वही स्वपर्याय है; और क्षयोपशम के द्वारा वे ज्ञेयों के द्वारा चित्र-विचित्र जो पर्याय है, वह परपर्याय है। दोनों ही षट्स्थानपतित वृद्धि-हानि-युक्त है / 26 (च) 'कारणशुद्धपर्याय' और 'कार्यशुद्धपर्याय' (1) इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञान-सहजदर्शन सहजचारित्र-सहजपरमवीतराग-सुखात्मक-शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपभावानन्त
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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