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________________ 'पर्याय' की अवधारणा में निहित दार्शनिक मौलिकता एवं विशेषता जैनदर्शन में पर्यायों को द्रव्य और गुण से कथंचिभिन्न स्वतंत्र माना गया है। - वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि / अपि नित्या प्रतिसमयं विनापि यत्नं हि परिणमन्ति गुणाः / 12 इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने पर्याय एवं क्रिया में भी अन्तर माना है। - भावो द्विविधः परिस्पन्दात्मकः अपरिस्पन्दात्मकश्च / तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्याख्यायते, इतरः परिणामः / 2 अर्थात् भाव दो प्रकार के होते हैं - परिस्पन्दात्मक एवं अपरिस्पन्दात्मक / इनमें से परिस्पन्दात्मक भावों को क्रिया कहते हैं तथा अपरिस्पन्दात्मक भावों को परिणाम या पर्याय कहते हैं। द्वितीय वर्ग : पर्याय के भेद-प्रभेद (क) 'द्रव्यपर्याय' और 'गुणपर्याय' - (1) पर्यायस्तु द्रव्यात्मका अपि गुणात्मका अपि / अर्थात् पर्यायें द्रव्यात्मक भी होती हैं और ___ गुणात्मक भी / (2) द्विधा पर्याया द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च / अर्थात् पर्यायें दो प्रकार की होती हैं, द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय / 15 (3) तत्रानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो द्रव्यपर्यायः / अर्थात् अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्तिकी कारणभूत द्रव्यपर्याय है / 15 (4) यतरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यया नाम्ना / अर्थात् द्रव्य के जितने प्रदेशरूप अंश हैं, उतने वे सब नाम से द्रव्यपर्याय हैं / (5) गुणद्वारेणान्वयरूपाया एकत्वप्रतिपत्तेर्निबन्धनं कारणभूतो गुणपर्यायः / अर्थात् जिन पर्यायों में गुणों के द्वारा अन्वयरूप एकत्व का ज्ञान होता है, उन्हें गुणपर्याय कहते हैं / 8 (6) गुणपर्यायः स चैकद्रव्यगत एवं सहकारफले हरितपाण्डुरादिवर्णवत् / अर्थात् गुणपर्याय एकद्रव्य में भी होती है, जैसे की एक आम की हरे और पीले रूप पर्याय / 9 (ख) 'अर्थपर्याय' और 'व्यञ्जनपर्याय' - (1) द्वितीयप्रकारेणार्थव्यञ्जनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति / अर्थात् दूसरी पद्धति से 'अर्थपर्याय' और 'व्यञ्जनपर्याय' के रूप में दो प्रकार की पर्यायें मानी गयी हैं / 20 (2) द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयतिद्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थपर्यायाः / अर्थात् जो द्रव्य को क्रम परिणाम से प्राप्त करते हैं, अथवा प्राप्त किये जाते हैं, वे अर्थपर्याय हैं / अर्थपर्याय सूक्ष्म है, ज्ञान-विषयक है, अतः शब्द से नहीं कही जा सकती / यह मात्र वर्तमानकालिक वस्तु को विषय करती है, इसलिए आचार्यों ने इसे 'ऋजुसूत्रनय' का विषय माना है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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