________________ प्रकाशकीय दो वर्ष पूर्व भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टिट्यूट ओफ इन्डोलोजी, दिल्ली में आयोजित प्रमाण मीमांसा की कार्यशाला के उद्घाटन समारोह में परमादरणीय प्रो. सिद्धेश्वर भट्ट साहेब के साथ संवाद के दौरान जैन दर्शन में पर्याय पुस्तक के विषय में चर्चा हुई थी। इस ग्रंथ के प्रकाशन के लिए मैंने प्रो. भट्ट साहेब से विनंती की थी और साथ में साग्रह निवेदन किया कि इस ग्रंथ का प्रकाशन हमारे संस्थान लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर के द्वारा करने की अनुमति प्रदान करेंगे जो विद्वानों के लिए बहूपयोगी सिद्ध होगा / प्रो. भट्ट साहेब ने मेरे आग्रह को स्वीकार करने का अनुग्रह किया तथा यह ग्रंथ 20 विशिष्ट शोध आलेखों के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे आनंद की अनुभूति हो रही है। इस ग्रंथ में जैन दर्शन में पर्याय के संदर्भ में जैन दर्शन के विद्वानों ने सूक्ष्म चिन्तन किया है। तेरापंथ के गणाधीश, विद्वान् जैन आचार्य महाप्रज्ञजी के "नय, अनेकान्त और विचार के नियम" शीर्षक आलेख में चिन्तन के दो बड़े क्षेत्रों भेद-अभेद की चर्चा है / जैन दार्शनिकों ने अभेद और भेद को समन्वित कर वैचारिक संघर्ष को कम करने का प्रयास किया है। प्रो. भट्ट साहेब के आलेख में जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की सुन्दर-समीक्षा की गई है। आज के विषादग्रस्त मानव एवं हिंसा से त्रस्त विश्व के लिए जैन आचार-विचार के सिद्धान्त नितान्त उपयोगी एवं लाभप्रद बताये हैं। समणी मंगलप्रज्ञाजी ने जैन दर्शन में अस्तित्व की अवधारणा पर विवक्षा करते हुये बहुत ही सुन्दर कहा है कि अस्तित्व परिवर्तन एवं अपरिवर्तन का समवाय है / जैन परिणामवाद के सिद्धान्त के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों में परिवर्तन होता है / द्रव्य परिवर्तन से होते हुए भी अपने अस्तित्व को नहीं छोड़ता / जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य का नवीनीकरण होने पर भी वह स्थिर रहता है। समणी ऋजुप्रज्ञाजी ने द्रव्य-गुण-पर्याय अन्तर्गत भेदाभेद की चर्चा की है / वे कहती हैं कि यह निर्विवाद स्वीकार किया जा सकता है कि द्रव्य-गुण-पर्याय में मौलिक भेद नहीं है / व्यवहार से भेद व परमार्थ से अभेद अर्थात् भेदाभेद है। ___ प्रो. सागरमलजी जैन ने अपनी प्रस्तुति में जैन दर्शन की द्रव्य, गुण एवं पर्याय की अवधारणा का समीक्षात्मक अवलोकन किया है।