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________________ जैन दर्शन में अस्तित्व की अवधारणा समणी मंगलप्रज्ञा अस्तित्व की अवधारणा के संदर्भ में सभी दर्शनों ने विमर्श किया है। पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दार्शनिकों का मुख्य चिन्तनीय बिन्दु अस्तित्व-विमर्श ही रहा है / दर्शन की अन्य विचारणा इसके परिपार्श्व में ही केन्द्रित है। यह स्पष्ट ही है कि विभिन्न दर्शन एवं दार्शनिकों का अस्तित्व की विचारणा के संदर्भ में मत वैविध्य है। अस्तित्व के सम्बन्ध में दर्शन जगत में हमें परस्पर विरोधी विचारधाराओं का अवबोध होता है। एक अवधारणा के अनुसार तत्त्व कूटस्थ है तथा इसके विपरीत दूसरी विचारधारा के समर्थक क्षणिक/ सर्वथा परिवर्तनशील को ही वास्तविक सत् मानते हैं / जो सत् को सर्वथा कूटस्थ नित्य मानते हैं, वे The Philosophy of Being के समर्थक हैं और इसके विपरीत जो सत् को, अस्तित्व को सवर्था अनित्य मानते हैं वे The Philosophy of Becoming के अनुगामी हैं / प्रथम विचारधारा के अनुसार परिवर्तन व्यावहारिक अथवा प्रतिभासिक सत् है, वह पारमार्थिक अर्थात् वास्तविक नहीं है। इसके विपरीत द्वितीय विचारधारा के अनुसार परिवर्तन ही पारमार्थिक सत् है, नित्यता का अनुभव संवृति सत् है, काल्पनिक है, अज्ञानजन्य है, उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है / प्रथम के अनुसार कूटस्थ द्रव्य की सत्ता ही वास्तविक है, जबकि दूसरे के अनुसार द्रव्यरहित पर्याय ही वास्तविक है / The Philosophy of Being के समर्थकों का मन्तव्य है कि परिवर्तन भ्रान्ति है और वह अज्ञान अथवा माया के द्वारा निर्मित है / The Philosophy of Becoming अर्थात् क्षणिकता के समर्थकों का अभ्युपगम है कि द्रव्य की कल्पना अज्ञानजन्य है / स्वयं के एवं संसार के प्रति राग के कारण व्यक्ति द्रव्य की कल्पना करता है। भारतीय चिंतन में Being की फिलासॉफी को कूटस्थ द्रव्यवाद एवं Becoming की फिलासॉफी को एकान्त पर्यायवाद के सम्बोधन से अभिहित किया जा सकता है। कूटस्थ द्रव्यवाद का समर्थक शांकर वेदान्त है। उनके अनुसार ब्रह्म ही सत्य है तथा वह कूटस्थ नित्य एवं एक है / संसार की विविधता
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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