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________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त 23 (7) एवंभूत - इसके अनुसार समस्त पद क्रिया-बोधक हैं / अतः जब तक व्युत्पत्ति द्वारा व्यक्त क्रिया किसी वस्तु में न हो, उस वस्तु को उस शब्द से सम्बोधित नहीं किया जा सकता / किसी व्यक्ति को अध्यापक तब ही कहा जा सकता है, जब वह पढ़ा रहा हो / इस तरह जैन दर्शन के अनुसार वस्तु का प्रमाण और नय, दोनों द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। नयों द्वारा प्रदर्शित सत्यांश और प्रमाण द्वारा व्यक्त अखंड सत्य मिलकर ही वस्तु के वास्तविक और सम्पूर्ण स्वरूप के बोधक होते हैं / जैन धर्म का विचार एवं आचार का पक्ष बड़ा सबल है, परन्तु व्यवहार में इसका आचरण बड़ा कठिन है। सम्यग् ज्ञान और संयम के बिना यह संभव नहीं है। परन्तु इसका आंशिक आचरण भी विश्व में अहिंसा तथा शांति के प्रसार के लिये पर्याप्त है। आज के विषादग्रस्त मानव एवं हिंसा से त्रस्त विश्व के लिये जैन विचार-आचार के सिद्धान्त नितान्त उपयोगी एवं लाभप्रद हैं / यह एक प्रौढ़ धर्म है, जिसको समझना और उसके अनुसार आचरण करना आज के युग की आवश्यकता है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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