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________________ 198 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा जैसा कि कहा भी जाता है - “मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः / " अर्थात् मनुष्य का मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। "वह अनुशासन से ही प्राप्त होता है / बल-प्रयोग से वे (इन्द्रियों ओर मन) वशवर्ती नहीं किये जा सकते / हठ से उन्हें नियंत्रित करने का यत्न करने पर वे कुण्ठित बन जाते हैं। उनकी शक्ति तभी हो सकती है, जब ये प्रशिक्षण के द्वारा अनुशासित किए जाए / "14 'मनोऽनुशासनम्' की विशेषताएँ : 1. आचार्य तुलसी ने इसे सर्वग्राह्य बनाने के लिए सीधे मन से प्रारम्भ किया। मन को प्राथमिकता देने के कारण ही सर्व प्रथम मन की परिभाषा दी, अनन्तर मन और इन्द्रियों का सम्बन्ध निरूपण करते हुए आत्मा के स्वरूप का विवेचन कर, मन के स्वामी आत्मा द्वारा मन के अनुशासन की प्रक्रिया को योग कहा / ऐसी स्थिति में मन को इन्द्रिय और आत्मा को मध्यस्थ मानकर, इन्द्रियों के द्वारा मन से प्राप्त ज्ञान शुद्ध हो, इस हेतु मन के संसाधन स्वरूप इन्द्रियों के शोधन की बात प्रथम प्रकरण में कहीं है। इस प्रथम प्रकरण में वे अनेक स्थलों पर पतञ्जलि से भिन्न दृष्टिकोण लिए हुए भी हैं / यथा - (1) जहाँ दर्शन में मन को संकल्प-विकल्पात्मक माना जाता है, वहीं आचार्य तुलसी ने इसकी परिभाषा में लिखा है - इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहित्रैकालिकं संज्ञानं मनः१५ यहाँ मन की स्थिति ज्ञान के संग्राहक की है। अतः मन के संग्राहक के शोधन और निरोध की प्रक्रिया इसमें महत्त्वपूर्ण हो गई है। (2) योग की परिभाषा भी विशिष्ट है / जहाँ योगदर्शनकार पतञ्जलि'६ चित्तवृत्तिनिरोध को योग कहते हैं वहीं मन, वाणी, काय, आनापान (प्राणापान), इन्द्रिय और आहार के निरोध को योग कहते हैं / अतः वे इन्द्रिय आहार के निरोध से पूर्व शोधन की बात करते हैं / (3) द्वितीय प्रकरण में मन के छ: भेदों का वर्णन है - मूढ़, विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट, सुलीन और निरुद्ध / 18 जबकि आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र में चार प्रकारों का वर्णन किया है। योग दर्शन में मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध भेद से चित्त की पाँच भूमियों (अवस्थाएँ) मानी गयी हैं / मन के छ: प्रकार आचार्य तुलसी की अपनी मौलिक उद्भावना हैं / ऐसा प्रतीत होता है कि, उन्होंने एकाग्रभूमि के ही दो स्तर माने हैं - श्लिष्ट (स्थिर मन) और सुलीन (सुस्थिर मन) / (4) महर्षि पतञ्जलि ने चित्तवृतियों के निरोध का साधन जहाँ अभ्यास और वैराग्य बतलाया है, वहीं जैनाचार्यो२२ ने ज्ञान और वैराग्य को / आचार्य तुलसी ने ज्ञान - वैराग्य के साधन के रूप में श्रद्धाप्रकर्ष, शिथिलीकरण, संकल्प, निरोध, ध्यान, गुरूपेदश और प्रयत्न की बहुलता का निरूपण किया है / (5) मन को नियंत्रित करने की प्रक्रिया में ध्यान को विशेष महत्त्व देते हुए आचार्य ने अपने
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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