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________________ 196 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा जैनसाधना पद्धति के सूत्र, आगमों में भी मिलते हैं / जहाँ शुद्ध सात्विक जीवन का आधार त्रिरत्न को माना गया है। जैन दर्शन का भव्य प्रासाद सम्यग्ज्ञान, सम्यक्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र इन्हीं तीन आधारों पर अवस्थित है। फिर तप को चारित्र के एक अतिरिक्त अंग के रूप में सम्मिलित कर इसे चतुष्पाद बना दिया गया / जैन साधना वीतरागता को प्रमुखता देती है। अतः वह सांसारिक आकर्षण को कषाय का स्वरूप मानते हुए साधक को इनसे बचने की सलाह देती है। यह व्यवहार और निश्चय के रूप में तो द्विविधा है ही, परन्तु श्रमण धर्म श्रावक धर्म के रूप में भी द्विविधा है, जिसे सर्वविरति और देश विरति के रूप में व्याख्यायित किया गया है / मुनि नथमल (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) के शब्दों में - "साधना का क्रम प्राप्त मार्ग यह है कि हम पहले असत्प्रवृत्ति से हटकर सत्प्रवृत्ति की भूमिका में आयें और फिर निवृत्ति की भूमिका को प्राप्त करें / "6 तप साधना के विकास क्रम में जैन, बौद्ध और शैव दर्शन छठी-सातवी शताब्दी के मध्य योग के समीप आये / बौद्धों में वज्रयानशाखा तंत्र-मंत्रसाधना द्वारा लोक-परलोक विजय की कामना करने लगी, तो शैवों में पातञ्जल योग का सहारा लेकर हठयोग की प्रवृत्ति बनी / सिद्ध और नाथों की परम्परा के समकाल में ही जैन आचार्यों ने जैन योग की दृष्टि से विचार करना प्रारम्भ किया / तप के अन्तर्गत पंचमहाव्रत, द्वादशव्रत और अनुप्रेक्षा को ध्यान में रखते हुए जैन साहित्य में यौगिक क्रियाओं के साहित्यिक और प्रात्यक्षिक अनुप्रयोग होने लगे / ___जैनयोग की परम्परा को व्यवस्थित रूप आचार्य हरिभद्र ने दिया / उन्होंने योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय आदि यौगिक ग्रन्थों की रचना कर योग को एक नया रूप दिया / पतञ्जलि के अष्टांगयोग की भांति आठ दृष्टियों की चर्चा की तथा मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में धर्म व्यापार को मानकर, अध्यात्म भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय रूप योग के पाँच भेद किये / आचार्य देवनंदि पूज्यपाद ने इष्टोपदेश, समाधितन्त्र, आचार्य हेमचंद्र ने योगशास्त्र, शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव, श्री नागसेनमुनि ने तत्त्वानुशासन, यशोविजय ने अध्यात्मसार, अध्योत्मोपनिषद, मंगलविजय ने योगप्रदीप, अमितगति ने योगसारप्राभृत, सोमदेवसूरि ने योगमार्ग, आचार्य भास्करनंदि ने ध्यानस्तव तथा योगीन्दुदेव ने परमात्माप्रकाशयोगसारः की रचना कर, जैन योग की परम्परा को समृद्ध किया / तेरापंथ के नवम् आचार्य तुलसी का महत्व सर्वातिशायी है / वे तत्त्ववेत्ता, मनीषी, चिन्तक, साधक, शिक्षाशास्त्री, धर्माचार्य, बहुभाषाविज्ञ, समाजसुधारक, आशुकवि, प्रकाण्डपण्डित और दार्शनिक थे। इन्होंने जैनसिद्धान्तदीपिका, भिक्षुन्यायकणिका, पंचसूत्रम्, शिक्षाषण्णवति तथा कर्त्तव्यषत्रिशिंका का ही प्रणयन नहीं किया अपितु योग एवं मन को अनुशासित करने के लिए आचार्य ने 'मनोऽनुशासन' की रचना की / मनोऽनुशासन की रचना में दर्शनशास्त्र में बहु प्रचलित सूत्र शैली का आश्रय ग्रहण किया गया है। सूत्र शैली की विशेषता यह है कि इसमें गूढ भावों को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है / सूत्रकार विषय की संक्षिप्तता का इतना ध्यान रखते हैं कि किसी बात को कहने में वे एक शब्द भी कम प्रयोग कर सके तो यह उनके लिए उतना ही सुखकारक होता है, जितना पुत्रोत्सव होता है / आचार्य के सूत्र कण्ठस्थ करने के लिए उपयोगी होते हैं, उन्हीं सूत्रों की व्याख्या कर, वे अपने विषय को कितना भी विस्तार दे सकते हैं /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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