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________________ 168 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा 3. अर्थ व व्यञ्जन पर्याय 24. पर्याय किसे कहते हैं ? गुण के विकार को पर्याय कहते हैं / 25. विकार अर्थात् क्या ? यहाँ विकार का अर्थ विकृत भाव ग्रहण न करना / इसका अर्थ है, विशेष कार्य अर्थात् गुण की परिणति से प्राप्त अवस्था विशेष / 26. पर्याय के कितने भेद हैं ? दो हैं-व्यञ्जन पर्याय और अर्थ पर्याय (या द्रव्य पर्याय व गुण पर्याय) 27. व्यञ्जन पर्याय किसे कहते हैं ? प्रदेशत्व गुण के विकार को व्यञ्जन पर्याय कहते हैं / 28. प्रदेशत्व गुण के विकार से क्या समझे ? द्रव्य का आकार ही प्रदेशत्व गुण का विकार या विशेष कार्य है; जैसे मनुष्य पर्याय का दो हाथ पैर वाला आकार / 29. द्रव्य पर्याय व व्यञ्जन पर्याय में क्या अन्तर है ? दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि दोनों का सम्बन्ध प्रदेशत्व गुण से है / 30. व्यञ्जन पर्याय के कितने भेद हैं ? दो हैं - स्वभाव व्यञ्जन पर्याय और विभाव व्यञ्जन पर्याय / 31. स्वभाव व्यञ्जन पर्याय किसे कहते हैं ? बिना दूसरे निमित्त से जो व्यञ्जन पर्याय हो, उसे स्वभाव व्यञ्जन पर्याय कहते हैं। जैसे जीव की सिद्ध पर्याय। 32. विभाव व्यञ्जन पर्याय किसे कहते हैं ? दूसरे के निमित्त से जो व्यञ्जन पर्याय हो, उसे विभाव व्यञ्जन पर्याय कहते हैं, जैसे जीव की नारकादि पर्याय। 33. अर्थ पर्याय किसे कहते हैं ? प्रदेशत्व गुण के सिवाय अन्य समस्त गुणों के विकार को अर्थ पर्याय कहते हैं / 34. गुण पर्याय व अर्थ पर्याय में क्या अन्तर है ? दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि दोनों का सम्बन्ध द्रव्य के भावात्मक गुणों से है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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