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________________ 152 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा (5) जो पर्याय नहीं है, उसे जो पर्याय मानते हैं, वे परसमय हैं / जो पर्याय के लक्ष्य में मतिभ्रष्ट हो गये हैं, वे परसमय हैं / जो पर्याय के लक्ष्य से सदाकाल उद्विग्न रहते हैं, व्याकुल रहते हैं, विह्वल रहते हैं; वे परसमय (8) जिनकी पर्याय के सम्बन्ध में गलत धारणा है, वे परसमय हैं / जो पर्याय के सम्बन्ध संशयग्रस्त हैं, भ्रमपूर्ण हैं; वे परसमय हैं / (10) जिन्हें पर्याय ने दीवाना बना दिया है / वे परसमय है / अथवा जो पर्याय के पीछे दीवाने हो रहे हैं / एक बात ध्यान देने की है कि जब वस्तु व्यवस्था द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक है, तथा पर्याय भी उसी वस्तु व्यवस्था का एक भाग है तो क्या कारण है कि मात्र पर्याय में मूढ़ होने को 'परसमय' कहा है, 'द्रव्यमूढ़ता' या 'गुणमूढ़ता' को नही / यहाँ तक कि उसे मिथ्यात्व भी कह दिया गया है / 16 यद्यपि आचार्यों ने परसमय को भी दो प्रकार से व्याख्यायित किया है - स्थूल परसमय और सूक्ष्म परसमय / 17 वहाँ स्थूल परसमय तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को ही कहा है, परन्तु सूक्ष्म परसमय तो सराग अवस्था में स्थित ज्ञानी को कहा है, क्योंकि शुद्धोपयोग में स्थित नहीं रहने के कारण ज्ञानी को भी सूक्ष्म परमसय कहा गया है / 8 वास्तविक स्वसमय तो वही है, जो दर्शन ज्ञान चरित्ररूप निश्चय रत्नत्रय में स्थित हो / 19 प्रश्न यही है कि क्या पदार्थमूढ़ता, द्रव्यमूढ़ता या गुणमूढ़ता को भी परसमय कहा जा सकता है ? यदि हाँ तो फिर क्यों नहीं कहा गया, अकेले पर्यायमूढ़ता को ही परसमय या मिथ्यादृष्टि तक क्यों कहा गया है ? वास्तव में इसमें एक रहस्य है, जिसे खोजना आवश्यक है। यद्यपि आचार्य जयसेन पर्यायमूढ़ता का अर्थ द्रव्य-गुण-पर्याय के परिज्ञान में मूढ़ करते हैं, साथ ही वे एक विशिष्ट अर्थ भी जोड़ते हैं, वह है भेदविज्ञान-मूढ़ / अब पुनः प्रश्न है कि पर्यायमूढ़ता का अर्थ भेद-विज्ञानमूढ़ कैसे हो सकता है अथवा यहाँ किससे भेदविज्ञान कराने का प्रयोजन है ? इसी प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने पर्याय मूढ़ता का अर्थ तत्त्व की अप्रतिपत्ति (अज्ञान) किया है / 21 एक तरफ स्वयं आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि "सर्व पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभाव की प्रकाश पारमेश्वरी व्यवस्था भली-उत्तम-पूर्ण व योग्य है, दूसरी कोई नहीं।" तथा दूसरी तरफ वे स्वयं ही तुरंत लिखते हैं कि "बहुत से जीव पर्याय मात्र का अवलम्बन करके, तत्त्व की अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है - ऐसे मोह को प्राप्त होते हुए परसमय होते हैं / " 22 यहाँ फिर प्रश्न है कि द्रव्य-गुण-पर्याय वाली पर्याय और पर्याय-मूढ़ता वाली पर्याय अलगअलग है या एक ही है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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