________________ 144 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा अर्थात् द्रव्य नित्य है और आकार यानी पर्याय अनित्य है / सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकार से पिण्ड रूप होता है / पिण्ड रूप का विनाश करके, उससे माला बनाई जाती है / माला का विनाश करके, उससे कड़े बनाए जाते हैं / कड़ों को तोड़कर, उससे स्वस्तिक बनाए जाते हैं / स्वस्तिकों को गलाकर फिर सुवर्ण पिण्ड हो जाता है। उसके पिण्ड आकार का विनाश करके खदिर अंगार के समान दो कुण्डल बना लिए जाते हैं / इस प्रकार आकार बदलता रहता है / आकार के नष्ट होने पर भी द्रव्य शेष रहता ही है। महर्षि पतञ्जलि के उक्त कथन से भी यह भलीभाँति स्पष्ट होता है कि प्रत्येक वस्तु एक ही समय में नित्य-अनित्यात्मक है, उसे कदापि एकान्तरूप से नित्य या अनित्य नहीं माना जा सकता है / आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा ग्रन्थ में दो बड़े ही सुन्दर दृष्टान्तों के माध्यम से द्रव्य की त्रयात्मकता (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) को सिद्ध किया है / वे दोनों दृष्टान्त इस प्रकार से हैं - "घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् // "5 एक राजा के एक पुत्र है और एक पुत्री / राजा के पास सोने का घड़ा है / पुत्री उस घट को चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस घट को तोड़कर, उसका मकट बनवाना चाहता है। राजा पत्र की खशी के लिए घट को तुड़वाकर, उसका मुकुट बनवा देता है / घट के नाश से पुत्री दुःखी होती है, मुकुट के उत्पाद से पुत्र प्रसन्न होता है और राजा न खुश होता है, न दुःखी होती है; क्योंकि वह सुवर्ण का इच्छुक है जो कि घट के टूट जाने पर भी उसमें कायम रहता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वस्तु त्रयात्मक "पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः / अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् // "6 अर्थात् जिस व्यक्ति ने केवल दूध ही पीने का व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता / जिसने केवल दही नहीं खाने का व्रत लिया है, वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस मात्र न खाने का व्रत लिया है वह न दूध पीता है और न दही, क्योंकि दूध और दही दोनों गोरस की दो पर्यायें है, अतः गोरसत्व दोनों में है / इस प्रकार सिद्ध होता है कि वस्तु त्रयात्मक अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। मीमांसा दर्शन में महामति कुमारिल भट्ट भी वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप मानते हैं। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए स्वामी समन्तभद्र के उक्त दृष्टान्त को अपनाया है / वे लिखते हैं कि - "वर्धमानकभंगे च रुचकः क्रियते सदा / तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः॥७