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________________ 95 जैनदर्शन में द्रव्य-गुण-पर्याय भेदाभेदवाद की अवधारणा प्रकार यदि गुणों में क्षणिकता आती है तो रही आवे इसमें क्या आपत्ति है / पर विचार करने पर यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से इस कथन में विरोध आता है। प्रत्यभिज्ञान प्रमाण से कालान्तरावस्थायी रूप से ही गुणों की प्रतीति होती है, अतः गुण क्षणिक होते हैं यह बात अनुभव से परे है। तथा दूसरी आपत्ति यह आती है कि यदि गुणों को द्रव्य से भिन्न माना जाए तो फिर एक साथ एक वस्तु में अनेक गुण नहीं प्राप्त हो सकते हैं / किन्तु हम देखते हैं कि आग में एक साथ रूप आदि अनेक गुण पाये जाते हैं, अतः उक्त दोष न प्राप्त हों, इसलिए गुणों को द्रव्य से कथंचित् अभिन्न मानकर द्रव्य के समान गुणों में भी उत्पादादिक तीन घटित कर होने चाहिए / ___पं० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने अपने पुस्तक जैनदर्शन के पृ०१४४ में लिखा है कि प्रत्येक द्रव्य सामान्यतया यद्यपि अखण्ड है, परन्तु वह अनेक सहभावी गुणों का भिन्न आधार होता है / अतः उसमें गुणकृत विभाग किया जा सकता है। एक पुद्गल परमाणु युगपत् रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि अनेक गुणों का आधार होता है। प्रत्येक गुण का भी प्रतिसमय परिणमन होता है / गुण और द्रव्य का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है / द्रव्य से गुण पृथक् नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अभिन्न है और संज्ञा, संख्या प्रयोजन आदि के भेद से उसका विभिन्न रूप से निरूपण किया जाता है, अतः वह भिन्न है / इस दृष्टि से द्रव्य में जितने गुण हैं, उतने उत्पाद और व्यय प्रतिसमय होते हैं / हर गुण अपनी पूर्व पर्याय को धारण करता है, पर वे सब हैं अपृथक्सत्ताक ही, उनकी द्रव्य सत्ता एक है / बारीकी से देखा जाए तो पर्याय और गुण को छोड़कर द्रव्य का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, अर्थात् गुण और पर्याय ही द्रव्य हैं और पर्यायों में परिवर्तन होने पर भी जो एक अविच्छिन्नता का नियामक अंश है, वही तो गुण है / हाँ गुण अपनी पर्यायों में सामान्य एकरूपता के प्रयोजन होते हैं / जिस समय पुद्गलाणु में रूप अपनी किसी नई पर्याय को लेता है, उसी समय रस, गंध और स्पर्श आदि भी बदलते हैं / इस तरह प्रत्येक द्रव्य में गुणकृत अनेक उत्पाद और व्यय होते हैं / ये सब उस गुण की सम्पत्ति या स्वरूप है। पंचास्तिकाय में लिखा है - समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुद सिद्धो य / तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा, सिद्धत्ति णिहिटो // 50 // द्रव्य और गुण एक अस्तित्व से रचित हैं, इसलिए उनकी जो अनादि अनंत सहवृत्ति (एक साथ रहना) वह वास्तव में समवर्तीपन है, वही युतसिद्धि के कारणभूत अस्तित्वांतर का अभाव होने से अयुतसिद्धता है, इसलिए समवर्तित्वस्वरूप समय वाले द्रव्य और गुणों को अयुतसिद्ध ही है, पृथक्ता नहीं है। जैन मत में समवाय उसी को कहते हैं जो एक साथ रहते हों अर्थात् जो किसी अपेक्षा एक रूप से अनादिकाल से तादात्म्य सम्बन्ध या न छूटने वाला सम्बन्ध रखते हों ऐसा साथ वर्तन गुण और गुणी का होता है। इससे दूसरा कोई अन्य से कल्पित समवाय नहीं है / यद्यपि गुण और गुणी में संज्ञा, लक्षण प्रयोजनादि की अपेक्षा भेद है, तथापि प्रदेशों का भेद नहीं है, इसमें से अभिन्न हैं तथा जैसे दण्ड और
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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