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________________ 94 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा यह है कि जो द्रव्य जिस रूप का होता है वैसा ही बना रहता है। जीव का कीड़ी से कुञ्जर होना संभव है पर वह जीवत्व को कभी नहीं छोड़ता, किन्तु प्रत्येक वस्तु या गुण में सजातीय परिणमन भी न माना जाये तो बात समझ में नहीं आती / हम देखते हैं कि हमारी बुद्धि विषय के अनुसार सदा बदलती रहती है। जो वर्तमान में पट को जान रही है वही कालान्तर में घट को जानने लगती है। इसी प्रकार जो आम वर्तमान में हरा है वही कालान्तर में पीला भी हो जाता है। अब जब ये या इस प्रकार के और और परिणमन अनुभव में आते हैं तो फिर गुणों को सर्वथा नित्य कैसे माना जा सकता है अर्थात् गुण कथंचित् अनित्य भी हैं / इस प्रकार यद्यपि गुण कथंचित् नित्यानित्यात्मक सिद्ध होते हैं तथा जो कार्य-कारण में सर्वथा भेद मानते है वे गुणों को सर्वथा नित्य और पर्यायों को सर्वथा अनित्य मानने की सूचना करते हैं, पर उनकी यह सूचना इसलिए ठीक नहीं है कि तत्त्वतः विचार करने पर द्रव्य, गुण और पर्याय सर्वथा पृथक्-पृथक् सिद्ध नहीं होते, किन्तु जैन परम्परा में इन सबमें कथंचित् भेद स्वीकार किया गया है, इसलिए जैसे द्रव्य नित्यानित्य प्राप्त होता है वैसे गुण भी कथंचित् नित्यानित्य सिद्ध होते हैं / यद्यपि द्रव्य से गुण और पर्याय में सर्वथा भेद नहीं है तथापि भेदवादी इनमें भेद मानकर ऐसी आशंका करते हैं कि गुण और पर्याय से पथक होने के कारण द्रव्य भले ही नित्यानित्य रही आवे पर इससे गण नित्यानित्य नहीं प्राप्त होते, किन्तु गुणों से सर्वथा नित्य और पर्यायों को सर्वथा अनित्य मान लेना चाहिए ? पर विचार करने पर यह आशंका भी ठीक प्रतीत नहीं होती, क्योंकि जैन परम्परा में गुण और पर्यायों से द्रव्य को सर्वथा पृथक् को ही द्रव्य माना है / द्रव्य नाम की कोई भी वस्तु गुण और पर्यायों से नहीं माना है, किन्तु समुच्चय रूप से गुण और पर्यायों पृथक् नहीं पाई जाती, इसलिए द्रव्य के नित्यानित्य सिद्ध होने पर उससे अभिन्न गुण भी कथंचित् नित्यानित्य सिद्ध होते हैं / यद्यपि स्थिति ऐसी है, तथापि नैयायिक और वैशेषिक कुछ गुणों को सर्वथा नित्य और कुछ गुणों की सर्वथा अनित्य मानते हैं / उनके मत से कारण द्रव्य के गुण सर्वथा नित्य है और कार्य द्रव्य के गुण अनित्य हैं / अपने इस मत की पुष्टि में उनका कहना है कि कच्चे घड़े को अग्नि में पकाने पर उसके पहले के गुण नष्ट होकर नये गुण उत्पन्न होते हैं / वैशेषिक तो उससे एक कदम आगे बढ़कर यहाँ तक कहते हैं कि अग्नि में घड़े के पकाने पर अग्नि की ज्वालाओं के कारण अवयवों के संयोग का नाश हो जाने पर असमवायी करण के नाश से श्याम घट नष्ट हो जाता है, फिर परमाणुओं में रक्त रूप की उत्पत्ति होकर व्यणुक आदि के क्रम से लाल घड़े की उत्पत्ति होती हैं / पर विचार करने पर उनका मत कथन समीचीन प्रतीत नहीं होता, क्योंकि घड़े की कच्ची अवस्था बदलकर पकी अवस्था के उत्पन्न होते समय यदि घड़े के मिट्टीपने का नाश माना गया होता तो कथंचित् उक्त कथन घटित होता, किन्तु जब पाक अवस्था में मिट्टी का नाश नहीं होता है तब मिट्टी में रहने वाले गुणों का नाश तो बन ही नहीं सकता है, क्योंकि किसी वस्तु का अपने गुणों को छोड़कर और दूसरा कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए गुण कथंचित् नित्यानित्य है यही सिद्ध होता है। इस पर फिर भी भेदवादियों का कहना है कि द्रव्य के प्रदेश भिन्न हैं और उनमें समवाय सम्बन्ध से रहने वाले गुण भिन्न हैं, इसलिए द्रव्य में जैसे उत्पादादिक तीन घटित तो जाते हैं, वैसे वे गुणों में घटित नहीं होते हैं / पर इस व्यवस्था के मानने पर दो आपत्तियाँ आती हैं प्रथम तो ऐसा मानने से गुणों में क्षणिकता का प्रसंग आता है, क्योंकि सर्वथा भिन्न दो वस्तुओं के संयोग को सर्वथा नित्य मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाए कि इस
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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