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________________ 92 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा हैं, क्योंकि अनेक द्रव्यों के परस्पर मिलने से हुई हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल में परस्पर मिलने रूप कोई पर्याय नहीं होती है / न पर द्रव्य के सम्बन्ध से कोई अशुद्ध पर्याय होती है / गुण पर्यायें भी दो प्रकार की हैं - स्वभाव गुणपर्याय, विभाव गुणपर्याय / गुण के द्वारा अन्वय रूप एकता के ज्ञान का कारण रूप जो पर्याय हो, उसे गुण पर्याय कहते हैं, वह एक द्रव्य के भीतर ही होती है, जैसे पुद्गल का दृष्टान्त आम के फल में है कि उसके वर्ण-गुण की हरी, पीली आदि पर्यायें होती हैं। प्रत्येक पर्याय में ज्ञान गुण की एकता का ज्ञान है जीव के प्रत्येक पर्याय में ज्ञान गुण की एकता का बोध है / ये जीव और पुद्गल की विभाव गुण पर्यायें हैं / स्वभाव गुणपर्यायें अगुरुलघुगुण की षट्गुणी हानि वृद्धिरूप हैं जो सर्व द्रव्यों में साधारणतया पाई जाती हैं। इस तरह स्वभाव विभाव गुण पर्याय हैं। गुण और अर्थ से एकार्थवाची होने से जिसे गुण पर्याय कहते हैं, वही अर्थ पर्याय है। और जिसे द्रव्य पर्याय कहते हैं, उसी का नाम व्यञ्जन पर्याय है / जीव द्रव्य में ज्ञान आदि, पुद्गल द्रव्य में रूप आदि, धर्म द्रव्य में गतिहेतुत्व आदि, अधर्म द्रव्य में स्थिति सन्तुलन, अनादि आकाश द्रव्य में अवगाहनत्व आदि और कालद्रव्य में वर्तना आदि अनन्त गुण हैं, जो अपने स्वरूप का त्याग न करने के कारण यद्यपि त्रिकालावस्थायी हैं, तथापि वे सदा एक परिमाण में न रहकर अन्तरंग और बहिरंग कारणों के अनुसार न्यूनाधिक रूप से परिणमन करते रहते हैं। उनमें यह न्यूनाधिकता उनके गुणांशों की अपेक्षा से ही प्राप्त होती है, अन्य प्रकार से नहीं, अतः द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा वे अवस्थित और पर्यायार्थिक नय की उपेक्षा से अनवस्थित सिद्ध होते हैं / इसी प्रकार द्रव्य और उनके प्रदेशों के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि द्रव्य के प्रदेशों में न्यूनाधिकता नहीं होती वे जितने हैं सदा काल उतने ही बने रहते हैं, तथापि अवगाहन गुण की अपेक्षा उनके अवगाहन में न्यूनाधिकता आती रहती है। असंख्य प्रदेशी एक ही जीव द्रव्य कभी कीड़ी के शरीर में समा जाता है और कभी फैलकर वह लोकाकाश में बराबर हो जाता है, प्रदेशों में न्यूनाधिकता के नहीं होने पर यहाँ पर भी तारतम्य घटित हो जाता है। इस प्रकार इस कथन से अर्थ पर्याय और व्यञ्जन पर्याय दोनों की सिद्धि हो जाती है। आलाप पद्धति में लिखा है - अनाद्यनिघने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् / उन्मशंति निमज्जति जलकल्लोलवज्जले // धर्माधर्मनभः काल अर्थपर्यायः गोचराः / व्यञ्जनेन तु सम्बुद्धौ द्वावन्यौ जीव-पुद्गलौ // अनादि-अनन्त द्रव्य में अपनी-अपनी पर्यायें प्रतिक्षण उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं, जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं / धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्य इन चारों द्रव्यों में अर्थ पर्याय ही होती है, किन्तु इनसे भिन्न जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों में व्यञ्जन पर्याय भी होती हैं /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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