________________ रचायेल 'मयण छन्द' जेवी कृतिनी स्पष्ट असर तेमां वरताय छे.* छतां चमत्कृतिभर्या प्रासानुप्रास अने आंतर्गमकथी तेमज अनुभावोना तादृश आलेखनथी ए हृदयस्पर्शी थई पडे छे अने विप्रलंभ शृंगारनो अनुभव करावी जाय छे. काव्यने अन्ते कडी 121 थी 140 मां आवेलो नेमिनाथनो उपदेश पण लावण्यसमयनो उमेरो छे. काव्यने सांप्रदायिक रंग आपी शांत रसनी निष्पत्ति करवामां ते महत्त्वनो फाळो आपे छे. आये काव्य शब्दलालित्यथी भरपूर छे. स्वाभाविक रीते ज प्रयोजायेला प्रासानुप्रास अने आंतर्यमक तेमां स्थळे स्थळे जोवा मळे छे. समान उच्चारना शब्दो द्वारा जुदा जुदा अर्थ व्यक्त करवानुं कवितुं चातुर्य ध्यान खेंचे एवं छे / प्रथम अधिकारनी कडी 36 अने 38 तेमज बीजा अधिकारनी कडी 85, 86, 87, 90 अने ९२मां तेनां उदाहरणो प्राप्त थाय छे. कवि, भाषाप्रभुत्व उच्च कोटिनुं छे. भाषानी जेम कवितुं छंदप्रभुत्व पण आकर्षक छे. सर्वत्र योग्य शब्द कृत्रिमता वगर छंदमां गोठवाता जाय छे ने माधुर्य सर्जता जाय छे. तेमां ये चरणाकुळ, मरहदा, पद्मावती अने त्रिभंगीनो प्रवाह अति वेगवन्त छे. उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अत्युक्ति, दृष्टान्त अने व्यतिरेक जेवा अर्थालंकारो कविए आ काव्यमा प्रयोज्या छे. तेमांना केटलाक अलंकारो रूढ छे, पण केटलाकमां मौलिकता अने कविप्रतिभाना चमकारा देखाय छे. उ. त., _ 'अलगी नांषइ सोवनत्रोटी, जिम जवरोटी कागई बोटी' (2-94) अने 'थूक जिम अलगी लांषइ' (2-104) ए पंक्तिओनी उपमा सचोट छे. बीजा अधिकारनी कडी 15, 16, 17, 18, 19, 20 अने २१मां रहेला व्यतिरेक के प्रतीप अलंकार चमत्कारभर्या छे. * आ वर्णनमांनो कडो 97, 98 अने 99 साथे सरखावो मयण छन्द'नो नीचेनो छप्पोः " बहिन तुहिन हार, गलि धरूं कि ? अहं अहं : मणिमय मंदिर कुसुम-सेजि पच्छरुं कि ? अहं अहं : कोइल केकि कपोत, कोर कहि प्रहूं कि ? अहं अहं : काम कुतूहल करण कथा, सखि ! कहू कि ? अहं अहं : सारंग-ज्योति सामी टलत, अवर किंपि मनि न न सहइः तिणि कारणि सही पडुत्तरु, अणखि अबल 'अहं अहं' करइ." (' गुजराती साहित्यनां स्वरूपो : पद्यविभाग,' पृ. ११५-डॉ. मंजुलाल र. मजमूदार)