________________ ( 66 ) ___ जो दृढ़ता के साथ उद्योग में लगे रहते हैं वे देवपद, इन्द्रपद तथा उनके पूज्य का पद अथवा उससे भी बड़ा कोई दूसरा पद प्राप्त करते हैं // 30 // नाविज्ञातं न चागम्यं नाप्राप्यं दिवि चेह वा / उद्यतानां मनुष्याणां यतचित्तेन्द्रियात्मनाम् // 37 // जो मनुष्य चित्त, इन्द्रिय तथा श्रात्मा को अपने वश में रख कर उद्यमशील होते हैं उनको कोई वस्तु अज्ञात नहीं रह जाती, कोई स्थान उनके लिये अगम्य नहीं रह जाता तथा इस लोक और स्वर्ग लोक की कोई भी वस्तु उन्हें अप्राप्य नहीं होती // 37 / / योजनानां सहस्राणि ब्रजन याति पिपीलकः / अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति // 38 // चलते रहने पर चींटी भी सहस्रों योजन चली जाती है और न चलने पर गरुड़ भी एक पग भी नहीं जा पाता // 38 // उद्युक्तानां मनुष्याणां गम्यागम्यं न विद्यते / भूतलं च क च ध्रौवं स्थानं यत् प्राप्तवान् ध्रुवः // 6 // उद्योगी मनुष्य के लिये कोई स्थान गम्य और कोई स्थान अगम्य नहीं होता, कहाँ भूतल और कहां ध्रुव का पद 1 फिर भी भूतलवासी ध्रुव ने उद्योग द्वारा ध्रव का पद पा ही लिया // 36 // इक्कीसवाँ अध्याय राजकुमार, गालव के आश्रम में पहुँच कर धर्मानुष्ठान में होने वाले विघ्नों का निवारण करने लगा। एक दिन गालव ऋषि जब सन्ध्योपासन कर रहे थे,उसी समय एक दानव उन्हें क्लेश देने के लिये शकर के रूप में उपस्थित हुअा। ऋषि के शिष्यों द्वारा यह बात ज्ञात होते ही राजकुमार ने धनुष-बाण लेकर अश्व पर श्रारूढ़ हो उसका पीछा किया और एक बाण से उसे पाहत कर दिया। वाण लगते ही वह वेग से भागा और राजकुमार ने भी उसके पीछे अपना अश्व दौड़ाया। आगे जाकर वह शूकर एक गर्त में पृथ्वी के भीतर घुस गया / राजकुमार ने वहाँ भी उसका पीछा न छोड़ा / गत बड़ा अन्धकारमय था अतः शूकर दृष्टि से अोझल हो गया / राजकुमार उसकी खोज में आगे बढ़ता ही गया। आगे जाने पर पुनः प्रकाश मिला और वहाँ हन्द्रभवन के समान भव्य एक स्वर्णप्रासाद दिखायी पड़ा। राजकुमार ने अश्व को एक स्थान में बांध दिया और स्वयं एक नारी के साथ, जिसने उसकी जिज्ञासा