________________ ( 36 ) एता व्याहृतयस्तिस्रः स्वरूपं तद्विवस्वतः। ओमित्यस्मात्स्वरूपात्तु सूक्ष्मरूपं रवेः परम् // ततो महरिति स्थूलं जनं स्थूलतरं ततः / ततस्तपस्ततः सत्यमिति मूर्तानि सप्तधा / / अण्डभेद होने पर ओंकार का प्राकट्य होते ही एक ओर तो उससे भूः आदि सूर्यके सात मूर्तरूपों का प्रादुर्भाव हुआ और दूसरी ओर उसी से तेजोमय क; यजुः, साम तथा अथर्व इन चार वेदोंका आविर्भाव हुा / तदनन्तर ये सारे वैदिक तेज ओंकार-रूप परम तेज के साथ मिल गये। जिसके फलस्वरूप एक महान् तेजःपुज्ज अस्तित्व में आया और वह सबके आदि में होने के कारण श्रादित्य कहलाया / वही तेज समस्त विश्व का कारण एवं स्वयं अव्यय है / ततस्तन्मण्डलीभूतं छान्दसं तेज उत्तमम् / परेण तेजसा ब्रह्मन् ! एकत्वमुपयाति तत् / / आदित्यसंज्ञामगमदादावेव . यतोऽभवत् / विश्वस्य हि महाभाग ! कारणं चाव्ययात्मकम् / / भगवान् सूर्यदेव वेदात्मा, वेद में स्थित, वेदविद्यास्वरूप तथा परमपुरुष कहलाते हैं / ये सनातन सूर्य ही रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय से ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र की संज्ञा प्राप्त करते हैं और ये ही उन रूपोंसे गुणों द्वारा जगत की सृष्टि, रक्षा तथा प्रलय करते हैं / तदेवं भगवान भास्वान् वेदात्मा वेदसंस्थितः। वेदविद्यात्मकश्चैव परःपुरुष उच्यते // सर्गस्थित्यन्तहेतुश्च रजःसत्त्वादिकान् गुणान् / आश्रित्य ब्रह्मविष्ण्वादिसंज्ञामभ्येति शाश्वतः // भगवान् सूर्य सदा देवताओं से स्तवन करने योग्य हैं / वेदमूर्ति हैं / वास्तव में उनकी कोई मूर्ति नहीं है / वे सबके आदि हैं / सारे मर्त्य भाव उनके स्वरूप हैं / वे जगत के आश्रय एवं ज्योति-रूप हैं / उनका तत्त्व अज्ञेय है। वे वेदान्त के एकमात्र प्रतिपाद्य परात्पर ब्रह्म-स्वरूप हैं / देवैः सदेड्यः स तु वेदमूर्तिरमूर्तिराद्योऽखिलमर्त्यमूर्तिः / विश्वाश्रयं ज्योतिरवेद्यधर्मा वेदान्तगम्यः परमः परेभ्यः // सूर्यदेव के उस महान् तेजोमण्डल के प्रकट होने पर उसके प्रचण्ड तेज से नीचे और ऊपर के समस्त लोक सन्तप्त होने लगे / यह देख ब्रह्माजी