________________ निकलता है कि पुराणविद्या वेदविद्या की भाँति अनादि है / काल-परीक्षण की अाधुनिक ऐतिहासिक शैली से पुराण का काल-निर्णय करना न तो सम्भव है और न न्यायसंगत ही ; क्योंकि पुराण का स्पष्ट कथन है उत्पन्नमात्रस्य पुरा ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः / पुराणमेतद् वेदाश्च मुखेभ्योऽनुविनिःसृताः॥ __(मा० पु० अ० 45) अव्यक्तजन्म ब्रह्मा के उत्पन्न होते ही उनके मुखों से पुराण एवं वेदों का उद्गम हुआ। जो तत्व वेद का प्रतिपाद्य है वही पुराण का भी प्रतिपाद्य है। वेद का प्रतिपाद्य पुराणपुरुष-परमेश्वर-सच्चिदानन्द अखण्ड ब्रह्म है ; अतः पुराण का भी प्रतिपाद्य वही है। पुराणरूप प्रतिपाद्य तत्त्व की दृष्टि से ही इस विद्या का नाम पुराण है। 'पुरा अनिति' अथवा 'पुरा भवम्' इस शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार पुराण शब्द का अर्थ होता है-सबसे पहले रहनेवाला। जब सृष्टि नहीं थी, सृष्टि का कोई चिन्ह नहीं था, उस समय भी जो विद्यमान था उसी का नाम पुराण है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार पुराण शब्द से जिसका व्यपदेश किया जा सकता है वह तत्त्व क्या है ? इस बात का विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि वह तत्व एकमात्र सच्चिदानन्द अखण्ड ब्रह्म ही हो सकता है, दूसरा कोई नहीं, क्योंकि स्वयं अजन्मा और दूसरे को जन्म देने की अनन्त शक्ति से सम्पन्न होने के कारण वही सारी सृष्टि का पूर्ववर्ती तथा उसका उद्गमस्थल हो सकता है। छान्दोग्य श्रति भी यही कहती है “सदेव सोम्य ! इदमग्र आसीद् एकमेवाद्वितीयम्... तदेक्षत, एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय" ब्रह्म को पुराण का प्रतिपाद्य मानने पर यह प्रश्न उठ सकता है कि पुराण के उपयुक्त लक्षण के अनुसार सृष्टि, प्रलय श्रादि पाँच बातें ही पुराण के प्रतिपाद्य हैं तो फिर पुराण का प्रतिपाद्य ब्रह्म कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि परब्रह्म का साक्षात् निर्देश किसी शब्द से हो नहीं सकता, उसका परिचय उसके कार्यों द्वारा ही किया जा सकता है। तटस्थ लक्षणों द्वारा ही उस तक पहुँचा जा सकता है / उपनिषद् भी तटस्थ लक्षण का ही विशेषरूपेण अवलम्बन करती है___ “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति” (तै० 3 / 1)