________________ ( 121 ) सौवाँ अध्याय इस अध्याय में बताया गया है कि शान्ति की स्तुति से प्रसन्न हो जब अग्निदेव प्रकट हुये तो शान्ति ने उनसे दो वर मांगे। एक तो यह की गुरुदेव की अग्निशाला में अग्नि पूर्ववत् प्रज्वलित हो उठे और दूसरा यह कि उन्हें उत्तम पुत्र की प्राप्ति हो और उनके चित्त में उस पुत्र के प्रति जैसा स्नेह और जैसी मृदुता हो वैसा ही स्नेह, वैसी ही मृदुता अन्य भूतों के प्रति भी हो / अग्निदेव की कृपा से उसके ये दोनों मनोरथ पूर्ण हुये। लौटने पर गुरुदेव को जब सब बातें ज्ञात हुई तब उन्होंने प्रसन्न हो उसे अपनी समस्त विद्यायें प्रदान की / इस प्रकार महर्षि भूति को प्राप्त हुअा पुत्र ही भौत्य नाम से प्रसिद्ध चौदहवाँ कि स्वायम्भुव मन्वन्तर के श्रवण से धर्म-प्राप्ति स्वारोचिष मन्वन्तर के श्रवण से कामना-पूर्ति, श्रौत्तम मन्यन्तर के श्रवण से धन, तामस मन्वन्तर के श्रवण से ज्ञान, रैवत मन्वन्तर के श्रवण से उत्कृष्ट बुद्धि एवं सुन्दरी स्त्री, चाक्षुष मन्वन्तर के श्रवण से प्रारोग्य, वैवस्वत मन्वन्तर के श्रवण से बल, सूर्य सावर्णिक के श्रवण से गुणवान् सन्तान, ब्रह्म सावर्णिक के श्रवण से महत्ता, धर्म सावर्णिक के श्रवण से कल्याण बुद्धि, रुद्र सावर्णिक के श्रवण से विजय, दक्ष सावर्णिक के श्रवण से श्रेष्ठ पुत्र और उत्कृष्ट गुण, रोच्य मन्वन्तर के श्रवण से शत्रुनाश और भौत्य मन्वन्तर के श्रवण से देवताओं की कृपा की प्राप्ति होती है। 101,102,103 अध्याय इन अध्यायों में बताया गया है कि पहले यह सम्पूर्ण लोक प्रकाशहीन, एवं अन्धकारमय था। सर्वप्रथम इसमें एक बृहत् अण्ड प्रकट हुश्रा, उसके भीतर बैठे हुये लोक स्रष्टा ब्रह्मा जी ने उसका भेदन किया भेदन होते ही उनके मुख से पहले परम तेजस्वी ॐ यह महान् शब्द प्रकट हुआ, और फिर उसी समय क्रम से उनके पूर्व मुख से ऋक, दक्षिण मुख से यजुः पश्चिममुख से साम और उत्तरमुख से अथर्ववेद का प्राकट य हुअा। ये सब भी तेजोमय थे / तत्पश्चात् अोङ्कार अर्थात् प्रणव का महान् तेज और चारों वेदों का तेज मिलकर एक महान् तेजःपुञ्ज बन गया जो सब के आदि में होने से आदित्य कहलाया। यह श्रादित्य ही सूर्यदेव का श्राद्यमूर्त रूप है / इसका तेज इतना प्रचण्ड था कि जो भी वस्तु उस समय ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न होती थी वह सद्यः इसकी अांच से भस्म हो जाती थी। इस सङ्कट को दूर करने के निमित्त