________________ ( 107 ) त्वं रक्षिता नो नृपते ! षड्भागादानवेतनः। . धर्मस्य तेन निश्चिन्ताः स्वपन्ति मनुजा निशि // 27 // तुम हम प्रजाजनों के रक्षक हो; प्रजाजन अपनी रक्षा के लिये ही अपनी आय का छठा भाग वेतन के रूप में तुम्हें देते हैं और तुम्हारे ही भरोसे रात में निश्चिन्त होकर सोते हैं / राजा ने कहा कि तुम्हारे कथनानुसार तुम्हारी पत्नी कुरूपा और कर्कशा थी तब फिर वैसी स्त्री की चिन्ता तुम क्यों करते हो | उससे उत्तम स्त्री का प्रबन्ध मैं तुम्हारे लिये कर दूंगा। तुम उसे भूल जाओ / यह सुन ब्राह्मण ने कहा कि.. . रक्ष्या भार्या महीपाल! इत्याह श्रुतिरुत्तमा / भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता // 35 / / आत्मा हि जायते तस्यां सा रक्ष्याऽतो नरेश्वर ! / प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षितः॥ 36 / / तस्यामरक्ष्यमाणायां भविता वर्णसङ्करः। स पातयेन्महीपाल ! पूर्वान् स्वर्गाद्धः पितृन् / / 37 // राजन् ! वेद की आज्ञा है कि मनुष्य को अपनी भार्या की रक्षा करनी तनय के रूप में स्वयं जन्म लेता है अतः भार्या की रक्षा से स्वयं अपनी रक्षा होती है। भार्या की रक्षा न करने पर उससे वर्णसङ्कर का जन्म होता है जो पितरों के अधःपतन का कारण होता है / अतः श्राप मेरी पत्नी को उपलब्ध करने का उद्योग कीजिये क्योंकि राजा होने से आप पर रक्षा का दायित्व है। ब्राह्मण का न्याययुक्त वचन सुनकर राजा उसकी पत्नी के अन्वेषण में निकला और उसकी जानकारी प्राप्त करने के निमित्त एक ऋषि के निकट गया / ऋषि ने पत्नी का परित्याग करने से उसे पतित समझ कर उसका आतिथ्य नहीं किया और कहा कि बलाक नामक राक्षस ने ब्राह्मण की पत्नी को उत्पलावत नामक वन में रखा है, वहाँ से लाकर उसे ब्राह्मण को प्रदान करो जिससे तुम्हारे समान भार्याहीन होकर वह भी पाप का भाजन न बने / सत्तरखाँ अध्याय __ इस अध्याय में यह बताया गया है कि ऋषि की अाशा से राजा उत्पलावत वन में गया | वहां ब्राह्मण की पत्नी को देखा और उससे पता लगा कर