________________ ( 105 ) उपसंहियतामात्मा चिरं ते क्रीडितं मया // 31 // ( उत्तरार्ध) किं सर्वकालं भोगैस्ते आसन्नं चरमं वयः // 32 // (पूर्वार्ध) ... ... ... // 32 // अब अपने काम का नियन्त्रण करो, बहुत समय तक तुमने मेरे साथ विहार किया / सदा विषय-भोग में पड़े रहने से क्या लाभ ! अब चौथापन श्रा गया / इतना कहने पर भी जब हंसी की मनोवृत्ति न बदली तब हंस ने फिर कहा कि नाहं स्वरोचिषस्तुल्यः स्त्रीबाध्यो वा जलेचरि!। विवेकवांश्च भोगानां निवृत्तोऽस्मि च साम्प्रतम् // 40 // मैं स्वरोचिष के समान स्त्रीके वश में नहीं हूँ, मैं विवेकी हूँ और अब मैं विषय सड़सठवाँ अध्याय इस अध्याय में स्वरोचिष के मनु होने का और उस मन्वन्तर के देव, ऋषि, इन्द्र और प्रमुख राजवंशों का वर्णन किया गया है। अड़सठवाँ अध्याय इस अध्याय में पद्मिनी विद्या की प्राश्रित निधियों का विस्तृत वर्णन किया गया है जिसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है / . पद्मिनी विद्या की देवता लक्ष्मी हैं। उसकी श्राश्रित निधियां अाठ हैं जो पद्म, महापद्म, मकर, कच्छप, मुकुन्द, नन्दक, नील और शंख नाम से प्रसिद्ध हैं। पद्म एक सात्त्विक निधि है और यह सात्त्विक मनुष्यों को महान् भोगों को सुलभ करती है। इससे सोना, चाँदी श्रादि धातुओं की प्राप्ति और उनके क्रय-विक्रय से सम्पत्ति की वृद्धि होती है। इस निधि से युक्त मनुष्य यज्ञ, दक्षिणा, धर्मोत्सव तथा देवमन्दिर-निर्माण आदि कार्य कराता है। महापद्म भी सात्त्विक निधि है यह अतिशय सात्त्विक पुरुषों को प्राप्त होती है / इससे पद्मराग आदि रत्न, मोती और मूंगे की प्राप्ति और उनके क्रय-विक्रय से सम्पत्ति की वृद्धि होती है। इस निधि से युक्त मनुष्य योग और योगियों का प्रेमी होता है / मकर-यह तामस निधि है यह तमोगुणी मनुष्य को प्राप्त होती है इससे युक्त मनुष्य अस्त्रों का व्यवसाय करता है और राजा तथा राज्या